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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 17/ मन्त्र 3
    ऋषिः - शुक्रः देवता - अपामार्गो वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अपामार्ग सूक्त
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    या श॒शाप॒ शप॑नेन॒ याघं मूर॑माद॒धे। या रस॑स्य॒ हर॑णाय जा॒तमा॑रे॒भे तो॒कम॑त्तु॒ सा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या । श॒शाप॑ । शप॑नेन । या । अ॒घम् । मूर॑म् । आ॒ऽद॒धे ।या । रस॑स्य । हर॑णाय । जा॒तम् । आ॒ऽरे॒भे । तो॒कम् । अ॒त्तु॒ । सा ॥१७.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    या शशाप शपनेन याघं मूरमादधे। या रसस्य हरणाय जातमारेभे तोकमत्तु सा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    या । शशाप । शपनेन । या । अघम् । मूरम् । आऽदधे ।या । रसस्य । हरणाय । जातम् । आऽरेभे । तोकम् । अत्तु । सा ॥१७.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 17; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के लक्षणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (या) जिस [शत्रुसेना] ने (शपनेन) शाप [कुवचन] से (शशाप) कोसा है और (या) जिसने (अवम्) दुःख देनेवाली (मूरम्) मूल को (आदधे) जमा लिया है। और (या) जिसने (रसस्य) रस के (हरणाय) हरण के लिये [हमारे] समूह को (आरेभे) छूआ है, (सा) यह [शत्रुसेना] (तोकम्) अपनी बढ़ती वा संतान को (अत्तु) खा लेवे ॥३॥

    भावार्थ

    जल शत्रु सेना दुर्वचन बोलती और उपद्रव मचाती बढ़ती आवे, युद्धकुशल सेनापति उनमें भेद डाल दे कि वह लोग अपने संतान अर्थात् इष्ट मित्रों को ही नाश करदें ॥३॥ यह मन्त्र पहले आ चुका है-अ० १।२८।३ ॥

    टिप्पणी

    ३-अयं मन्त्रो व्याख्यातः-अ० १।२८।३। इह शब्दार्थो दीयते। (या) शत्रुसेना (शशाप) अनिष्टकथनं कृतवती। (शपनेन) शापेन कुवचनेन (अघम्) दुःखकरम् (मूरम्) लस्य रः। मूलं प्रतिष्ठाम् (आदधे) परिजग्राह (रसस्य) सारस्य। आनन्दस्य (हरणाय) नाशनाय (आरेभे) आलेभे। स्पृष्टवती (तोकम्) वर्धनम्। सन्तानम् (अत्त) भक्षयतु (सा) शत्रुसेना ॥

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    विषय

    रोगवद्धि की समाप्ति

    पदार्थ

    १. (या) = जो रोग (शपनेन) = आक्रोशों के द्वारा (शशाप) = आक्रोशयुक्त करता है, अर्थात् जिस बीमारी में रोगी ऊटपटांग बोलने लगता है, (या) = जो बीमारी (मुरम्) = [मुर्छा मौहे] मूळ उत्पन्न करनेवाले (अघम्) = कष्ट को (आदधे) = धारण करती है अथवा (या) = जो रोग (रसस्य हरणाय) = शरीरगत रुधिर आदि रसों के हरण के लिए (जातम् आरेभे) = उत्पन्न सन्तान का आलिङ्गन करता है-बच्चे को चिपट जाता है (सा) = वह अपामार्ग नामक ओषधि (तोकम् अत्तु) = इस रोग की वृद्धि को खा जाए-ओषध-प्रयोग से यह रोग जाता रहे।

    भावार्थ

    कई रोगों में रोगी ऊटपटाँग बोलने लगता है, उसे चित्तभ्रम-सा [delirium] हो जाता है, कइयों में मूर्छा की स्थिति हो जाती है, कइयों में खून सूखने लगता है। अपामार्ग ओषधि इन सब रोगों को रोकती है।

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    भाषार्थ

    (यः) जिस राक्षस-स्वभाववाली स्त्री ने (शपनेन) शाप द्वारा (शशाप) शाप दिया है, (या) तथा जिसने (मूरम्) मूर्च्छोत्पादक कर्मरूपी (अधम्) पाप को (आदधे) धारण किया है, या अवलम्बित किया है, (या) जिसने कि (रसस्य हरणाय) रक्तादिरस के हरण करनेवाले के लिए (जातम्) उत्पन्न हमारे पुत्र को (आरेभे) बलात्कार से हथिया लिया है, (सा) वह (तोकम्) निज पुत्र को (अत्तु) खाये।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में शाप के स्वरूप को दर्शाया है शपथ को नहीं। मन्त्र में दो शापों का वर्णन हुआ है ‘शशाप’ पद द्वारा तथा ‘तोकम्, अत्तु सा’ द्वारा। [आरेभे आलेभे, रलयोरभेदः। ये दोनों शाप गाली के रूप में हैं।]

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    विषय

    अपामार्ग और अपामार्ग विधान का वर्णन।

    भावार्थ

    विषम व्याधि का स्वरूप बतलाते हैं। (या) जो व्याधि (शपनेन) कुवचनों से (शशाप) रोगी को अधिक २ कुवचन कहलाती है और (या) जो (मूरं) मूर्छाकारी (अधं) न दबने वाले विकार को (आदधे) धारण करती है। (या) जो (रसस्य हरणाय) शरीर का बल नाश करने के लिये (जातम् आरेभे) उत्पन्न बालक को पकड़ लेती है, सम्भव है (सा) वह (तोकम्) तोक, अल्प बल बच्चे को (अत्तु) खा जाय। अथवा जो ओषधि पुरुष को बहुत बुलवावे, मूर्छा करे, बलनाशक रोग को उत्पन्न करे वही (तोकम्) उस कष्टदायी रोग को खाजाय, नाश करे। जो विष जिस प्रकार के रोग को उत्पन्न करता है वही उसको सूक्ष्म, तीव्र यात्रा में दूर भी करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुक्र ऋषिः। अपामार्गो वनस्पतिर्देवता। १-८ अनुष्टुभः। अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Apamarga Herb

    Meaning

    Whatever has reviled the patient with its malignity, whatever has planted itself as a fast growing killer disease, whatever has seized life’s regenerative force to consume the vitality of life and arrest the renewal, may all that cancerous curse itself consume its own germination and further growth to cause its own end.

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    Translation

    One who has cursed us (sasapa) with a curse or has committed a murder and kept it a secret, or has seized or - kidnapped our son for his blood, why not she devour, her own child, which she bear.

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    Translation

    Let devour its progeny itself the disease which by its curse makes the patient talk in anger, which contains the evil that causes unconsciousness and which hold out the child to suck his chyle.

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    Translation

    Some disease makes a patient cry aloud and utter incoherent words, some engenders in the patient the evil of fainting. Another disease attacks a newly born child for emaciation. Such a disease devours the weak child.

    Footnote

    This verse is the same as 1-28-3, but with a different interpretation and is therefore free from the charge of repetition. Griffith translates both the verses alike.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३-अयं मन्त्रो व्याख्यातः-अ० १।२८।३। इह शब्दार्थो दीयते। (या) शत्रुसेना (शशाप) अनिष्टकथनं कृतवती। (शपनेन) शापेन कुवचनेन (अघम्) दुःखकरम् (मूरम्) लस्य रः। मूलं प्रतिष्ठाम् (आदधे) परिजग्राह (रसस्य) सारस्य। आनन्दस्य (हरणाय) नाशनाय (आरेभे) आलेभे। स्पृष्टवती (तोकम्) वर्धनम्। सन्तानम् (अत्त) भक्षयतु (सा) शत्रुसेना ॥

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