अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 17/ मन्त्र 5
सूक्त - शुक्रः
देवता - अपामार्गो वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अपामार्ग सूक्त
दौष्व॑प्न्यं॒ दौर्जी॑वित्यं॒ रक्षो॑ अ॒भ्व॑मरा॒य्यः॑। दु॒र्णाम्नीः॒ सर्वा॑ दु॒र्वाच॒स्ता अ॒स्मन्ना॑शयामसि ॥
स्वर सहित पद पाठदौ:ऽस्व॑प्न्यम् । दौ:ऽजी॑वित्यम् । रक्ष॑: । अ॒भ्व᳡म् । अ॒रा॒य्य᳡: । दु॒:ऽनाम्नी॑: । सर्वा॑: । दु॒:ऽवाच॑: । ता: । अ॒स्मत् । ना॒श॒या॒म॒सि॒ ॥१७.५॥
स्वर रहित मन्त्र
दौष्वप्न्यं दौर्जीवित्यं रक्षो अभ्वमराय्यः। दुर्णाम्नीः सर्वा दुर्वाचस्ता अस्मन्नाशयामसि ॥
स्वर रहित पद पाठदौ:ऽस्वप्न्यम् । दौ:ऽजीवित्यम् । रक्ष: । अभ्वम् । अराय्य: । दु:ऽनाम्नी: । सर्वा: । दु:ऽवाच: । ता: । अस्मत् । नाशयामसि ॥१७.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 17; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
(दौस्वप्न्यम्) दुःस्वप्न और उसमें अवाञ्छनीय दृश्य, यथा (दौर्जीवित्यम्) जीवन सम्बन्धी दुर्गति, (रक्षः) जिससे अपनी रक्षा अभीष्ट है ऐसे ‘क्रूर मनुष्य का दर्शन’ (अभ्वम्) निज सत्ता का अभाव अर्थात् निज मृत्यु का दर्शन, (अराय्यः) निज सम्पत्तियों का अभाव अर्थात विनाश-इन दृश्यों को (नाशायामसि) हम नष्ट करते हैं, तथा (दुर्णाम्नीः, दुर्वाचः, सर्वाः) बदनाम कुवचन बोलनेवाली सब स्त्रियों को (अस्मत्) अपने मध्य में से (नाशयामसि) हम नष्ट करते हैं।
टिप्पणी -
[दुःस्वप्न आदि का विनाश तो निज मनोबल द्वारा या सूफ्तोक्त औषधियों द्वारा, सम्भव है और बदनाम स्त्रियों की दुष्प्रवृत्तियों का विनाश भी औषध-चिकित्सा द्वारा सम्भव है। अथवा राजव्यवस्थानुसार१ इन्हें मृत्युदण्ड देकर इनके विनाश को सूचित किया है।] [१. यथा “धर्माय सभाचरम्” (यजुः० ३०।६), धर्म के लिए सभा अर्थात् न्यायसभा और न्यायसभा के मुख्य न्यायाधीश को राजा प्राप्त करें [आलभते मन्त्र] धर्म का अभिप्राय ३०।२२ व्यवस्था, राजव्यवस्था तथा प्रजाव्यवस्था। न्यायसभा दोनों व्यवस्थाओं को व्यवस्थित करती है। दण्ड देना भी न्यायसभा के निर्णयानुसार होता है।]