अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 31/ मन्त्र 5
सूक्त - ब्रह्मास्कन्दः
देवता - मन्युः
छन्दः - जगती
सूक्तम् - सेनानिरीक्षण सूक्त
वि॑जेष॒कृदिन्द्र॑ इवानवब्र॒वोस्माकं॑ मन्यो अधि॒पा भ॑वे॒ह। प्रि॒यं ते॒ नाम॑ सहुरे गृणीमसि वि॒द्मा तमुत्सं॒ यत॑ आब॒भूथ॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒जे॒ष॒ऽकृत् । इन्द्र॑:ऽइव । अ॒न॒व॒ऽब्र॒व: । अ॒स्माक॑म् । म॒न्यो॒ इति॑ । अ॒धि॒ऽपा: । भ॒व॒ । इ॒ह । प्रि॒यम् । ते॒ । नाम॑ । स॒हु॒रे॒ । गृ॒णी॒म॒सि॒ । वि॒द्म । तम् । उत्स॑म् । यत॑: । आ॒ऽब॒भूथ॑ ॥३१.५॥
स्वर रहित मन्त्र
विजेषकृदिन्द्र इवानवब्रवोस्माकं मन्यो अधिपा भवेह। प्रियं ते नाम सहुरे गृणीमसि विद्मा तमुत्सं यत आबभूथ ॥
स्वर रहित पद पाठविजेषऽकृत् । इन्द्र:ऽइव । अनवऽब्रव: । अस्माकम् । मन्यो इति । अधिऽपा: । भव । इह । प्रियम् । ते । नाम । सहुरे । गृणीमसि । विद्म । तम् । उत्सम् । यत: । आऽबभूथ ॥३१.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 31; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
(विजेषकृत) विजयकारी (इन्द्रः इव) सम्राट् के सदृश, (अनवब्रवः) विरोध में अवचनीय (मन्यो) हे बोधयुक्त क्रोध! तू (इह) इस संग्राम में (अस्माकम्) हमारा (अधिपाः) अधिपालक अर्थात रक्षक नेता (भव) हो; (सहुरे) हे पराभव करनेवाले। (ते) तेरे (प्रियं नाम) प्रियनाम [मन्यु] का (गृणीमसि) हम उच्चारण करते हैं, स्तवन करते हैं। (तम, उत्सम) उस स्रोत को (विद्म) हम जानते है, (यतः) जहाँ से तु (आवभूथ) आ प्रकट हुआ है।
टिप्पणी -
[इन्द्रः= सम्राट् "इन्द्रश्च सम्राट्" (यजु:० ८।३७)। अनवब्रवः-= अ+न्+अव+ब्रूञ् व्यक्तायां वाचि (अदादि:)। अभिप्राय यह कि जैसे विजय द्वारा प्राप्त अधिकार के विरोध में सम्राट् अवचनीय अनिन्दनीय होता है, वैसे हे मन्यु! तुझ द्वारा विजय प्राप्त अधिकार के विरोध में तू भी व्यक्त वाणी में, अवचनीय है, अर्थात् निन्दनीय नहीं होता। प्रियं नाम= मन्यु का नाम अर्थात् बोधयुक्त क्रोध प्रिय नाम है, बोध रहित क्रोधप्रिय नहीं, यह हानिकारक है। उत्सम्= हदयस्रोतः हदय, रक्तरूपी आपः, का स्रोत है= जहां से मन्यु की उत्पत्ति होती है। हृदय रक्तरूपी आपः का स्रोत है, यथा (अथर्व० १०।२।११)।]