अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 33/ मन्त्र 3
प्र यद्भन्दि॑ष्ठ एषां॒ प्रास्माका॑सश्च सू॒रयः॑। अप॑ नः॒ शोशु॑चद॒घम् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । यत् । भन्दि॑ष्ठ: । ए॒षा॒म् । प्र । अ॒स्माका॑स: । च॒ । सू॒रय॑: । अप॑ । न॒: । शोशु॑चत् । अ॒घम् ॥३३.३॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र यद्भन्दिष्ठ एषां प्रास्माकासश्च सूरयः। अप नः शोशुचदघम् ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । यत् । भन्दिष्ठ: । एषाम् । प्र । अस्माकास: । च । सूरय: । अप । न: । शोशुचत् । अघम् ॥३३.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 33; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(एषाम्) इनमें से (यद्) जो मैं (प्र) प्रकृष्ट (भन्दिष्ठः) कल्याणकारी हूँ, (च) और (अस्माकास:) हमारे (सूरय:) प्रेरक विद्वान् भी (प्र) प्रकृष्ट हैं, [इसलिए] (अघम्) पाप को (अप) अपगत करके (नः शोशुचत्) मुझ अग्नि की शोचि या तू अग्नि-परमेश्वर हमें पवित्र करता है।
टिप्पणी -
[पवित्रता प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को भी प्रकृष्ट कल्याण-मार्गी होना चाहिए, और समाज के प्रेरक विद्वानों को भी कल्याणमार्गी होना चाहिए, तब हम सबको परमेश्वर पवित्र कर देता है। परमेश्वर अग्नि है, अग्नि दाहक गुणवाला है। वह हम सबके पापों को दग्ध कर हमें पवित्र कर देता है। भन्दिष्टः= भदि कल्याणे सुखे च (भ्वादिः)। सुरय:= षू प्रेरणे (तुदादिः), प्रेरक विद्वान्। प्रेरक विद्वान् जब कल्याणमार्गी हो जाते हैं, तब प्रजाजन भी कल्याण मार्गी हो जाते हैं]