अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 33/ मन्त्र 8
स नः॒ सिन्धु॑मिव ना॒वाति॑ पर्षा स्व॒स्तये॑। अप॑ नः॒ शोशु॑चद॒घम् ॥
स्वर सहित पद पाठस:। न॒: । सिन्धु॑म्ऽइव । ना॒वा । अति॑ । प॒र्ष॒ । स्व॒स्तये॑ । अप॑ । न॒: । शोशु॑चत् । अ॒घम् ॥३३.८॥
स्वर रहित मन्त्र
स नः सिन्धुमिव नावाति पर्षा स्वस्तये। अप नः शोशुचदघम् ॥
स्वर रहित पद पाठस:। न: । सिन्धुम्ऽइव । नावा । अति । पर्ष । स्वस्तये । अप । न: । शोशुचत् । अघम् ॥३३.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 33; मन्त्र » 8
भाषार्थ -
(सः) वह तू [हे परमेश्वराग्नि!] (नः) हमें (नावा) नौका द्वारा (सिन्धुम् इव) जैसे सिन्धु अर्थात् समुद्र को, वैसे (अतिपर्ष) द्वेषनद से पार कर (स्वस्तये) हमारे कल्याण के लिए। (अप नः शोशुचत् अघम्) परमेश्वराग्नि पापों को अपगत करके, दग्ध करके, उसकी शोचि या परमेश्वराग्नि हमें पवित्र कर देती है।
टिप्पणी -
[पर्ष= लेट् लकार, सिप्। "सिब् बहुलं लेटि" (अष्टा० ३।१।३४)।]