अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 33/ मन्त्र 5
प्र यद॒ग्नेः सह॑स्वतो वि॒श्वतो॒ यन्ति॑ भा॒नवः॑। अप॑ नः॒ शोशु॑चद॒घम् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । यत् । अ॒ग्ने: । सह॑स्वत: । वि॒श्वत॑: । यन्ति॑ । भा॒नव॑: । अप॑ । न॒: । शोशु॑चत् । अ॒घम् ॥३३.५॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र यदग्नेः सहस्वतो विश्वतो यन्ति भानवः। अप नः शोशुचदघम् ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । यत् । अग्ने: । सहस्वत: । विश्वत: । यन्ति । भानव: । अप । न: । शोशुचत् । अघम् ॥३३.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 33; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
(यत्) जोकि (सहस्वतः) पराभव करनेवाले, (अग्नेः) परमेश्वराग्नि की (भानवः) प्रभाएं (विश्वतः) संसार के सब ओर (प्र यन्ति) प्रयाण करती हैं, अतः (अप नः शोशुचत् अघम्) परमेश्वराग्नि पापों को अपगत करके, दग्ध करके, उसकी शोचि या स्वयं परमेश्वराग्नि हमें पवित्र कर देती है।
टिप्पणी -
[व्यक्ति समग्र संसार में परमेश्वराग्नि की प्रभाओं को देखता है, अनुभव करता है, अत: वह समग्र संसार में प्रभावान् परमेश्वर की सत्ता को जानकर, कहीं भी पाप नहीं करता, और पाप से अपगत होकर पवित्र हो जाता है।]