अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 6/ मन्त्र 7
ये अपी॑ष॒न्ये अदि॑ह॒न्य आस्य॒न्ये अ॒वासृ॑जन्। सर्वे॑ ते॒ वध्र॑यः कृ॒ता वध्रि॑र्विषगि॒रिः कृ॒तः ॥
स्वर सहित पद पाठये । अपी॑षन् । ये । अदि॑हन् । ये । आस्य॑न् । ये । अ॒व॒ऽअसृ॑जन् । सर्वे॑ । ते । वध्र॑य: । कृ॒ता: । वध्रि॑: । वि॒ष॒ऽगि॒रि: । कृ॒त: ॥६.७॥
स्वर रहित मन्त्र
ये अपीषन्ये अदिहन्य आस्यन्ये अवासृजन्। सर्वे ते वध्रयः कृता वध्रिर्विषगिरिः कृतः ॥
स्वर रहित पद पाठये । अपीषन् । ये । अदिहन् । ये । आस्यन् । ये । अवऽअसृजन् । सर्वे । ते । वध्रय: । कृता: । वध्रि: । विषऽगिरि: । कृत: ॥६.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 6; मन्त्र » 7
भाषार्थ -
(ये) जिन्होंने (अपीषन्) इसे पीसा है, (ये) जिन्होंने (अदिहन्) बाण के मुखाग्र को विष से लिप्त किया है। (ये) जिन्होंने (आस्यन्) विष सम्पृक्त बाण को फेंका है, चलाया है, (ये) जिन्होंने (अवासृजन्) विष का सर्जन किया है, (ते सर्वे) वे सब (वध्रयः कृताः) शक्तिरहित कर दिए हैं, (विषगिरिः) विषपर्वत (वध्रि:) विषोत्पादन में नि:शक्त (कृतः) कर दिया है।
टिप्पणी -
[विष गिरि=विष का समूह; अथवा गिरि को विषैले सर्पों से रहित कर दिया है, उन सबको मार दिया है।]