अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 16/ मन्त्र 1
सूक्त - विश्वामित्रः
देवता - एकवृषः
छन्दः - साम्न्युष्णिक्
सूक्तम् - वृषरोगनाशमन सूक्त
यद्ये॑कवृ॒षोऽसि॑ सृ॒जार॒सोऽसि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयदि॑ । ए॒क॒ऽवृ॒ष: । असि॑ । सृ॒ज । अ॒र॒स: । अ॒सि॒ ॥१६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्येकवृषोऽसि सृजारसोऽसि ॥
स्वर रहित पद पाठयदि । एकऽवृष: । असि । सृज । अरस: । असि ॥१६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 16; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(यदि एकवृषः असि) यदि तेरी एक इन्द्रिय तुझपर निजविषय की वर्षा करती है, तो (सृज) "ऋतप्रजात ऋतावरी" वृत्ति का सर्जन कर (सूक्त १५), (अरसः) उस ऐन्द्रियिक वर्षा-रस अर्थात् वर्षा-उदक [के प्रभाव] से रहित (असि) तू हो जाएगा।
टिप्पणी -
[कोशिपसूत्र २९।१५ में पूर्वसूक्त १५ का, सूक्त १६ के साथ विनियोग किया है, अतः इन दोनों में एकवाक्यता होनी चाहिए। तदनुसार ही सूक्त १६ के मन्त्रों के अर्थ किये हैं। मन्त्र ११ में 'अरस:' को 'अपोदकः' कहा है जोकि इन्द्रिय के विषय को उदक-वर्षा के रूप में सूचित करता है।]