अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 9/ मन्त्र 1
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - वास्तोष्पतिः
छन्दः - दैवी बृहती
सूक्तम् - आत्मा सूक्त
दिवे॒ स्वाहा॑ ॥१॥
स्वर सहित पद पाठदि॒वे । स्वाहा॑ ॥९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवे स्वाहा ॥१॥
स्वर रहित पद पाठदिवे । स्वाहा ॥९.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(दिवे स्वाहा) द्युलोक के लिए आहुति हो । (पृथिव्यै स्वाहा) पृथिवी के लिए आहुति हो । (अन्तरिक्षाय स्वाहा) अन्तरिक्ष के लिए आहुति हो।
टिप्पणी -
[आरोह-कम से मन्त्र-क्रम चाहिए, यथा पृथिव्यै स्वाहा, अन्तरिक्षाय स्वाहा, दिवे स्वाहा, यह लोकक्रम१ है। व्यक्ति निज "अल्पकायिक" स्वरूप को "विश्वकायिक" स्वरूप में लीन करना चाहता है [मन्त्र ७] । वह पहले पृथिवी में निज पार्थिव स्वरूप को लीन करता है, वह पृथिवी को निज पार्थिव-काय समझता है। तदनन्तर अन्तरिक्ष में निज सूक्ष्म-देह को लीन करता है, अन्तरिक्ष को निज सुक्ष्म-देह वह समझता है। तदनन्तर दिव् में निज कारण-देह को लीन करता है, दिव को निज कारण-देह वह समझता है। यह है आरोह-क्रम, नीचे से ऊपर की ओर आरोहण करना। मन्त्रों में स्वाहा द्वारा अग्नि में आहुति देना अभिप्रेत नहीं, अपितु निज त्रिविध-देह को त्रिविध-लोकों में लीन करना अभिप्रेत है।] [१. आरोहक्रम से मन्त्रक्रम चाहिए "पुथिव्यै स्वाहा, अन्तरिक्षाय स्वाहा दिवे स्थाहा" तथा प्रत्यवरोहक्रम से मन्त्रक्रम चाहिए 'दिवे स्वाहा, अन्तरिक्षाय स्वाहा, पृथिव्यै स्वाहा', परन्तु दोनों क्रमों में मन्त्रक्रमों में विपर्यय हुआ है।]