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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 102/ मन्त्र 2
सूक्त - जमदग्नि
देवता - अश्विनौ
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अभिसांमनस्य सूक्त
आहं खि॑दामि ते॒ मनो॑ राजा॒श्वः पृ॒ष्ट्यामि॑व। रे॒ष्मच्छि॑न्नं॒ यथा॒ तृणं॒ मयि॑ ते वेष्टतां॒ मनः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठआ । अ॒हम् । खि॒दा॒मि॒ । ते॒ । मन॑: । रा॒ज॒ऽअ॒श्व: । पृ॒ष्ट्याम्ऽइ॑व। रे॒ष्मऽछि॑न्नम् । यथा॑ । तृण॑म् । मयि॑ । ते॒ । वे॒ष्ट॒ता॒म् । मन॑: ॥१०२.२॥
स्वर रहित मन्त्र
आहं खिदामि ते मनो राजाश्वः पृष्ट्यामिव। रेष्मच्छिन्नं यथा तृणं मयि ते वेष्टतां मनः ॥
स्वर रहित पद पाठआ । अहम् । खिदामि । ते । मन: । राजऽअश्व: । पृष्ट्याम्ऽइव। रेष्मऽछिन्नम् । यथा । तृणम् । मयि । ते । वेष्टताम् । मन: ॥१०२.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 102; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
हे रुष्ट पत्नी (ते मनः) तेरे मन को (अहम्) मैं पति (आ खिदामि) दैन्यपुक्त करता हूं, (इव) जैसे (राजाश्व:) अश्वों का राजा अर्थात् शक्तिशाली अश्व (पृष्ट्याम्) अश्वों को देन्ययुक्त करता है। तथा (यथा) जैसे (रेष्मछिन्नम्) प्रबल वायु मे कटा (तृणम्) तिनका [वायु में] (वेष्टताम्) लिपट जाता है वैसे (ते मनः) तेरा मन (मयि) मुझ में (वेष्टताम्) लिपट जाए।
टिप्पणी -
[पृष्ट्याम्= अथर्ववेद की कई प्रतिलिपियों में 'पृष्ठयाम्' पाठ है। इस का अर्थ है अश्व के पृष्ठ के साथ संलग्न होकर रथ में जुती अश्वा घोड़ी। साथ-साथ जुते होने के कारण राजाश्व अश्वा को भोग के लिये दैन्ययुक्त कर देता है। 'आखिदामि' खिद दैन्ये (दिवादिः, रुधादिः), और अश्वा भोगार्थ राजा के अनुकूल हो जाती है। यही अवस्था पति, पत्नी के मन को कर देता है। रेष्मच्छिन्नम्= रिष हिंसायाम् + मन् (औणादिक, १।१४०-१४४)+ छिन्नम्। हिंसा करने वाली, वृक्षों वनस्पतियों, तिनकों को छिन्न-भिन्न कर देने वाली; प्रवल वायु।]