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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 106/ मन्त्र 2
सूक्त - प्रमोचन
देवता - दूर्वाशाला
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - दूर्वाशाला सूक्त
अ॒पामि॒दं न्यय॑नं समु॒द्रस्य॑ नि॒वेश॑नम्। मध्ये॑ ह्र॒दस्य॑ नो गृ॒हाः प॑रा॒चीना॒ मुखा॑ कृधि ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒पाम् । इ॒दम् । नि॒ऽअय॑नम् । स॒मु॒द्रस्य॑ । नि॒ऽवेश॑नम् । मध्ये॑ । ह्र॒दस्य॑ । न॒: । गृ॒हा: । प॒रा॒चीना॑ । मुखा॑ । कृ॒धि॒ ॥१०६.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अपामिदं न्ययनं समुद्रस्य निवेशनम्। मध्ये ह्रदस्य नो गृहाः पराचीना मुखा कृधि ॥
स्वर रहित पद पाठअपाम् । इदम् । निऽअयनम् । समुद्रस्य । निऽवेशनम् । मध्ये । ह्रदस्य । न: । गृहा: । पराचीना । मुखा । कृधि ॥१०६.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 106; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
शाला के समीप (१) या तो (इदम्) यह (अपाम्) जल का (न्ययनम्) नीचे गिराना अर्थात् जलप्रपात हो; (२) या (समुद्रस्य) समुद्र की (निवेशनम्) स्थिति हो; (३) या (नः) हमारे (गृहा:) घर (हृदस्य) तालाब के (मध्ये) मध्य में हों। (मुखा= मुखानि) घरों में मुख (पराचीना = पराचीनानि) परस्पर पराङ्मुख (कृधि) हे गृहस्थी तू कर।
टिप्पणी -
[गर्मी के निवारणार्थ, घरों के निर्माण स्थलों का निर्देश, मन्त्र में किया है। मुखानि का अभिप्राय है खिड़कियां और दरवाजे। ये परस्पर पराङ्मुख होने चाहिये, विरोधी दिशाओं में अर्थात् आमने-सामने की दिशाओं में होने चाहियें। निवेशनम् = अथवा सामुद्रिक जल का पृथ्वी में प्रवेश, खाड़ी, Inlet, Bay Gulf]।