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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 106/ मन्त्र 3
सूक्त - प्रमोचन
देवता - दूर्वाशाला
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - दूर्वाशाला सूक्त
हि॒मस्य॑ त्वा ज॒रायु॑णा॒ शाले॒ परि॑ व्ययामसि। शी॒तह्र॑दा॒ हि नो॒ भुवो॒ऽग्निष्कृ॑णोतु भेष॒जम् ॥
स्वर सहित पद पाठहि॒मस्य॑ । त्वा॒ । जरायु॑णा। शाले॑ । परि॑ । व्य॒या॒म॒सि॒ । शी॒तऽह्र॑दा । हि । न॒: । भुव॑: । अ॒ग्नि: । कृ॒णो॒तु॒ । भे॒ष॒जम् ॥१०६.३॥
स्वर रहित मन्त्र
हिमस्य त्वा जरायुणा शाले परि व्ययामसि। शीतह्रदा हि नो भुवोऽग्निष्कृणोतु भेषजम् ॥
स्वर रहित पद पाठहिमस्य । त्वा । जरायुणा। शाले । परि । व्ययामसि । शीतऽह्रदा । हि । न: । भुव: । अग्नि: । कृणोतु । भेषजम् ॥१०६.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 106; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(शाले) हे शाला ! (त्वा) तुझे (हिमस्य) बर्फ के (जरायुणा) गर्भ-वेष्टन के सदृश वेष्टन द्वारा (परिव्ययामसि) हम सब ओर वेष्टित करते हैं, (नः) हमारे लिये (हि) निश्चय से (शीतह्रदा) ठण्डे तालाब के सदृश (भुव:) तू हो जा। (अग्निः) यज्ञियाग्नि (भेषजम्) हमारी रोग चिकित्सा (कृणोतु) करे।
टिप्पणी -
[ऐसे शीतगृहों की आवश्यकता अत्यन्त गर्म प्रदेशों में हो सम्भव है। तदर्थ बर्फ जमा सकना वैज्ञानिकता का सूचक है।]