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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 110/ मन्त्र 2
ज्ये॑ष्ठ॒घ्न्यां जा॒तो वि॒चृतो॑र्य॒मस्य॑ मूल॒बर्ह॑णा॒त्परि॑ पाह्येनम्। अत्ये॑नं नेषद्दुरि॒तानि॒ विश्वा॑ दीर्घायु॒त्वाय॑ श॒तशा॑रदाय ॥
स्वर सहित पद पाठज्ये॒ष्ठ॒ऽघ्न्याम् । जा॒त: । वि॒ऽचृतो॑: । य॒मस्य॑ । मू॒ल॒ऽबर्ह॑णात् । परि॑ । पा॒हि॒ । ए॒न॒म् । अति॑ । ए॒न॒म् । ने॒ष॒त् । दु॒:ऽइ॒तानि॑ । विश्वा॑ । दी॒र्घा॒यु॒ऽत्वाय॑ । श॒तऽशा॑रदाय ॥११०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
ज्येष्ठघ्न्यां जातो विचृतोर्यमस्य मूलबर्हणात्परि पाह्येनम्। अत्येनं नेषद्दुरितानि विश्वा दीर्घायुत्वाय शतशारदाय ॥
स्वर रहित पद पाठज्येष्ठऽघ्न्याम् । जात: । विऽचृतो: । यमस्य । मूलऽबर्हणात् । परि । पाहि । एनम् । अति । एनम् । नेषत् । दु:ऽइतानि । विश्वा । दीर्घायुऽत्वाय । शतऽशारदाय ॥११०.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 110; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(ज्येष्ठघ्न्याम्) जेठ का हनन करने वाली पत्नी में (जातः) पैदा हुआ, है, (एनम्) इसे (यमस्य) मृत्यु के (विचृतो:) विशिष्ट दो हिंसकों सम्बन्धी (मूल ईणात) मूल पुरुष की हिंसा से (परि पाहि) हे परमेश्वर ! [मन्त्र [१] तू सर्वतः सुरक्षित कर। (एनम्) इसे (विश्वा= विश्वानि, दुरितानि) सब दुष्फलों से (अतिनेषत्) वह परमेश्वर अतिक्रान्त करे, छुड़ा दे, (दीर्घायुत्वाय) दीर्घायु के लिये, (शतशारदाय) सौ शरद् ऋतुओं की प्राप्ति के लिये।
टिप्पणी -
[मन्त्रोक्ति देवर की पत्नी की है। पत्नी है जेठ की पत्नी जिस ने कि जेठ का हनन किया है। उससे पुत्र पैदा हुआ है। उसकी सुरक्षा अभीष्ट है, क्योंकि वह मूलपुरुष है भावी वंश परम्परा का। विचृतौ हैं दो तत्त्व, जो कि उत्पन्न पुत्र के हिंसक हैं। वे हैं रजोगुण और तमोगुण। यथा 'रजस्तमो मोप गा मा प्रमेष्ठाः" (अथर्व० ८।२।१)। मन्त्र में ज्येष्ठ शब्द है, जिसे कि "जेठ" कहते हैं, "ज्येष्ठा" शब्द नहीं, जिस का अर्थ "ज्येष्ठा नक्षत्र" किया जा सके।]