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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 110/ मन्त्र 3
व्या॒घ्रेऽह्न्य॑जनिष्ट वी॒रो न॑क्षत्र॒जा जाय॑मानः सु॒वीरः॑। स मा व॑धीत्पि॒तरं॒ वर्ध॑मानो॒ मा मा॒तरं॒ प्र मि॑नी॒ज्जनि॑त्रीम् ॥
स्वर सहित पद पाठव्या॒घ्रे । अह्नि॑ । अ॒ज॒नि॒ष्ट॒ । वी॒र: । न॒क्ष॒त्र॒ऽजा: । जाय॑मान: । सु॒ऽवी॑र: । स: । मा । व॒धी॒त् । पि॒तर॑म् । वर्ध॑मान: । मा । मा॒तर॑म् । प्र । मि॒नी॒त् । जनि॑त्रीम् ॥११०.३॥
स्वर रहित मन्त्र
व्याघ्रेऽह्न्यजनिष्ट वीरो नक्षत्रजा जायमानः सुवीरः। स मा वधीत्पितरं वर्धमानो मा मातरं प्र मिनीज्जनित्रीम् ॥
स्वर रहित पद पाठव्याघ्रे । अह्नि । अजनिष्ट । वीर: । नक्षत्रऽजा: । जायमान: । सुऽवीर: । स: । मा । वधीत् । पितरम् । वर्धमान: । मा । मातरम् । प्र । मिनीत् । जनित्रीम् ॥११०.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 110; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(वीरः) वीर-पुत्र (व्याघ्र) व्याघ्र सदृश गर्म स्वभाव वाले (अहनि) दिन में (अजनिष्ट) पैदा हुआ है। (नक्षत्रजाः) अक्षतवीर्य-पिता से उत्पन्न हुआ वह (जायमानः) पैदा होता हुआ (सुवीरः) उत्तम वीर होता है। (स) वह (मा वधोत्) न वध करे (पितरम्) पिता का (वर्धमानः) आयु में बढ़ता हुआ, (मा) न (जनित्रीम्) जन्मदात्री (मातरम्) माता की (प्रमिनीत्) हिंसा करे। मिनीत्= मी हिंसायाम् (क्र्यादिः)।
टिप्पणी -
[माता ने ज्येष्ठ अर्थात् देवर की पत्नी के जेठ का हनन किया है। (मन्त्र २), जिस से कि वीर या सुवीर पैदा हुआ है। सम्भवतः निज जन्म दात्री माता का बदला लेने की दृष्टि से वीर पुत्र उस के वध के लिए तय्यार हो जाय, अतः उसे कहा है कि जन्मदात्री माता की तू हिंसा न कर, और न पितृ समान सम्बन्धा किसी पिता का ही वध कर। नक्षत्रजाः= न+क्षतवीर्य + "र" वाले से+जा: (उत्पन्न); यथा "अथो नक्षत्राणामेषामुपस्थे सोम आहितः" (अथर्व० १४।१।२), सोम= उत्पादक वीर्य; semen जायमानः सुवीर:= अक्षतवीर्य पिता से उत्पन्न होता हुआ ही वह सुवीर रूप में पैदा होता है, वर्धमान होता हुआ वह निज सुवीरता को प्रकट करता है।] मन्त्र २ के प्रसिद्धार्थों में: (१) ज्येष्ठ= ज्येष्ठा नक्षत्र जो कि अथर्व० १९।७।३ के अनुसार १५वां नक्षत्र है। अथर्ववेद की नक्षत्र गणना कृत्तिका नक्षत्र से प्रारम्भ होता है। वर्तमान नक्षत्र गणनानुसार ज्येष्ठा १८वा नक्षत्र१ है। (२) विचृतौ= ये दो तारे हैं (काण्ड २।८।१; ३।७।४; ६।१२१।३)। इन की व्याख्याएं भी यथास्थान कर दी जायेंगी। ये दो तारे वृश्चिक राशि में हैं, मूलबर्हणात् (मन्त्र २) में मूलनक्षत्र भी वृश्चिक राशि की पूछ में स्थित है। काण्ड ६।२ में "विचृतो:" का, और "विचृतौ" दो ताराओं का परस्पर अर्थ में भेद है।] [१. अथर्ववेद में २८ नक्षत्र माने है। "अष्टाविंशनि शिवानि शामानि सहयोगं भजन्तु मे" (१९।८।२)। यतः अथर्ववेद में "अभिजित् " नक्षत्र माना है (१९।७।४)। नक्षत्र २७ माने जाते हैं।]