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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 124/ मन्त्र 2
सूक्त - अथर्वा
देवता - दिव्या आपः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - निर्ऋत्यपस्तरण सूक्त
यदि॑ वृ॒क्षाद॒भ्यप॑प्त॒त्पलं॒ तद्यद्य॒न्तरि॑क्षा॒त्स उ॑ वा॒युरे॒व। यत्रास्पृ॑क्षत्त॒न्वो॒ यच्च॒ वास॑स॒ आपो॑ नुदन्तु॒ निरृ॑तिं परा॒चैः ॥
स्वर सहित पद पाठयदि॑। वृ॒क्षात् । अ॒भि॒ऽअप॑प्तत् ।फल॑म् । तत् । यदि॑ । अ॒न्तरि॑क्षात् । स: । ऊं॒ इति॑ । वा॒यु: । ए॒व । यत्र॑ । अस्पृ॑क्षत् । त॒न्व᳡: । यत् । च॒ । वास॑स: । आप॑: । नु॒द॒न्तु॒ । नि:ऽऋ॑तिम् । प॒रा॒चै: ॥१२४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यदि वृक्षादभ्यपप्तत्पलं तद्यद्यन्तरिक्षात्स उ वायुरेव। यत्रास्पृक्षत्तन्वो यच्च वासस आपो नुदन्तु निरृतिं पराचैः ॥
स्वर रहित पद पाठयदि। वृक्षात् । अभिऽअपप्तत् ।फलम् । तत् । यदि । अन्तरिक्षात् । स: । ऊं इति । वायु: । एव । यत्र । अस्पृक्षत् । तन्व: । यत् । च । वासस: । आप: । नुदन्तु । नि:ऽऋतिम् । पराचै: ॥१२४.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 124; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(यदि वृक्षात्) यदि वृक्ष से (अभि) मेरी ओर (फलम्) फल [स्वयं पककर१] (अपप्तत्) गिरा है (तत्) तो वह और (यदि अन्तरिक्षात्) यदि अन्तरिक्ष से [अल्पवर्षा जल] भी गिरा है तो (स) वह (उ) निश्चय से, (वायुः एव) प्राणप्रदवायु के सदृश ही है। तथा (तन्वः) शरीर के (यत्र) जिस अङ्ग में (च) और (वाससः) वस्त्र के जिस स्थान में (यत्) जो अपवित्र वस्तु (अस्पृक्षत्) स्पर्श कर गई है, लग गई है तो उस (निर्ऋतिम्) कष्टप्रद वस्तु को (अपः) शुद्ध जल (पराचः) पृथक् कर देने की विधियों द्वारा (नुदन्तु) पृथक् कर दें।
टिप्पणी -
[मन्त्र में स्वास्थ्य सम्बन्धी निर्देशों का कथन हुआ है। वृक्ष से स्वयं फल का गिरना उसकी परिपक्वावस्था का सूचक है। उसका सेवन प्राणप्रद वायु के सदृश प्राणप्रद है। इसी प्रकार अन्तरिक्ष से वर्षाजल का गिरना भी वायुसमान प्राणप्रद है। वर्षाजल शुद्ध होता है, और भूमि पर गिरकर वह अशुद्ध हो जाता है, उसमें भूमि के तत्त्वों का मिश्रण हो जाता है। इस लिये इन शुद्ध जलों द्वारा शरीर और वस्त्र के मल को धोने का वर्णन हुआ है। यह मल निर्ऋति है, कृच्छ्रापत्ति है। निर्ऋतिः कृच्छापत्तिः (निरु० २।२।८; निर्ऋति पद)। अपप्तत्= पत्लृ गतौ, लृदित्त्वात् च्लेः अङ् आदेशः "पतः पुम्" (अष्टा० ७।४।१९) इति पुम् आगमः (सायण)। अस्पृक्षत् = स्पृशतेश्छान्दसो लुङ, च्लेः क्सादेश: (अष्टा० ३।१।४५), (सायण)।] [१. कृत्रिम विधि से पकाए फल उतने गुणकारी नहीं होते जितने कि शाला पर पके गुणकारी होते हैं।]