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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 124/ मन्त्र 3
सूक्त - अथर्वा
देवता - दिव्या आपः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - निर्ऋत्यपस्तरण सूक्त
अ॒भ्यञ्ज॑नं सुर॒भि सा समृ॑द्धि॒र्हिर॑ण्यं॒ वर्च॒स्तदु॑ पू॒त्रिम॑मे॒व। सर्वा॑ प॒वित्रा॒ वित॒ताध्य॒स्मत्तन्मा ता॑री॒न्निरृ॑ति॒र्मो अरा॑तिः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि॒ऽअञ्ज॑नम् । सु॒र॒भि । सा । सम्ऽऋ॑ध्दि: । हिर॑ण्यम् । वर्च॑: । तत् । ऊं॒ इति॑ । पू॒त्रिम॑म् । ए॒व । सर्वा॑ । प॒वित्रा॑ । विऽत॑ता । अधि॑ । अ॒स्मत् । तत्। मा । ता॒री॒त् । नि:ऽऋ॑ति: । मो इति॑ । अरा॑ति: ॥१२४.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अभ्यञ्जनं सुरभि सा समृद्धिर्हिरण्यं वर्चस्तदु पूत्रिममेव। सर्वा पवित्रा वितताध्यस्मत्तन्मा तारीन्निरृतिर्मो अरातिः ॥
स्वर रहित पद पाठअभिऽअञ्जनम् । सुरभि । सा । सम्ऽऋध्दि: । हिरण्यम् । वर्च: । तत् । ऊं इति । पूत्रिमम् । एव । सर्वा । पवित्रा । विऽतता । अधि । अस्मत् । तत्। मा । तारीत् । नि:ऽऋति: । मो इति । अराति: ॥१२४.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 124; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(अभ्यञ्जनम्) मलने का तैल, (सुरभि) सुगन्धित चन्दन आदि (सा समृद्धिः) वह समृद्धिरूप है, (हिरण्यम्) सुवर्ण और (वर्चः) शारीरिक तेज (तत् उ) वे (पुत्रिमम्) पवित्रता के साधन ही हैं। (सर्वा पवित्रा= सर्वाणि पवित्राणि) सब पवित्र कर्म (अस्मत् अधि) हम से (वितता = विततानि) विस्तृत हुए हैं, (तत्) अतः (मा) न (निर्ॠतिः) कष्टापत्ति (तारीत्) हमें दवाएं, (मो) न (अरातिः) अदान भावना दबाएं।
टिप्पणी -
[हिरण्य१= सुवर्णभस्म। यह रोगों का विनाश करके शरीर को नीरोग करती है, नीरोगता ही पवित्रता है। शारीरिक नीरोगता से शारीरिक तेज या बल बढ़ता है। शारीरिक बल की वृद्धि से रोग शरीर पर आक्रमण नहीं करते, शरीर के स्वस्थ रहते [सूक्त १२४ मन्त्र १ में प्रोक्त] छन्दों का स्वाध्याय आदि शुभकर्मों के कारण न कृच्छ्रापत्ति अर्थात् शारीरिक कष्ट दबाते हैं, न कंजूसी आदि मानसिक दुर्भावनाएं दबाती हैं। तारीत्= अतिक्रामतु (सायण)।][१. होम्योपैथी में विशुद्ध हिरण्य का भी प्रयोग होता है जिसे कि "Aurum metallicum" कहते हैं।]