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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 124/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वा
देवता - दिव्या आपः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - निर्ऋत्यपस्तरण सूक्त
दि॒वो नु मां बृ॑ह॒तो अ॒न्तरि॑क्षाद॒पां स्तो॒को अ॒भ्यपप्त॒द्रसे॑न। समि॑न्द्रि॒येण॒ पय॑सा॒हम॑ग्ने॒ छन्दो॑भिर्य॒ज्ञैः सु॒कृतां॑ कृ॒तेन॑ ॥
स्वर सहित पद पाठदि॒व: । नु । माम् । बृ॒ह॒त: । अ॒न्तरि॑क्षात् । अ॒पाम् । स्तो॒क: । अ॒भि । अ॒प॒प्त॒त् । रसे॑न । सम् । इ॒न्द्रि॒येण॑ । पय॑सा । अ॒हम् । अ॒ग्ने॒ । छन्द॑:ऽभि: । य॒ज्ञै: । सु॒ऽकृता॑म् । कृ॒तेन॑ ॥१२४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवो नु मां बृहतो अन्तरिक्षादपां स्तोको अभ्यपप्तद्रसेन। समिन्द्रियेण पयसाहमग्ने छन्दोभिर्यज्ञैः सुकृतां कृतेन ॥
स्वर रहित पद पाठदिव: । नु । माम् । बृहत: । अन्तरिक्षात् । अपाम् । स्तोक: । अभि । अपप्तत् । रसेन । सम् । इन्द्रियेण । पयसा । अहम् । अग्ने । छन्द:ऽभि: । यज्ञै: । सुऽकृताम् । कृतेन ॥१२४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 124; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(दिव:) द्युलोक से, (बृहतः अन्तरिक्षात्) बड़े अन्तरिक्ष से (अपाम्) जल का (स्तोकः) स्वल्पांश भी (नु) शीघ्र (माम् अभि) मेरे प्रति (रसेन) रस के साथ (अपप्तत्) यदि वर्षारूप में गिरा है, तो (अहम्) मैं (इन्द्रियेण) धन से, (पयसा) दूध से, (छन्दोभिः) वैदिक छन्दों से, (यज्ञैः) यज्ञों से (सुकृताम्, कृतेन) सुकर्मियों के कर्म से अथवा उत्तम कर्मों के करने से (अग्ने) हे परमेश्वर ! (सम्) सम्बद्ध हो जाऊं।
टिप्पणी -
[सुक्त १२३ के मन्त्र ५ से, "राजन्" का सम्बन्ध, सूक्त १२४ में समझना चाहिये। राष्ट्र में वर्षा न होने के कारण प्रजा दुःखी है। इसलिये राजा वर्षा जल के स्वल्पांश का भी अभिलाषी है। वर्षा जल द्वारा वृक्षों वनस्पतियों में नानाविध रसों का संचार होता है, और धनसम्पत्ति बढ़ती खाद्य-पेय प्राप्त होते, वेदाध्ययन तथा यज्ञादि सुकर्मों का सम्पादन होता है। यजुर्वेदानुसार "राजा" अपने शरीर तथा शरीराङ्गों के सदृश राष्ट्र और प्रजा को जानकर शासन करता है। यथा "पृष्ठीर्मे राष्ट्रमुदरम् सौ ग्रीवाश्च श्रोणी। उरुऽअरत्नी जानुनी विशो मेऽङ्गानि सर्वतः” (२०।८)। इसलिये राजा मन्त्र में राष्ट्र और प्रजा का निर्देश "मे" करता है। इन्द्रियेण= इन्द्रियम् धननाम (निघं० २।१०)। दिवः अन्तरिक्ष तू= द्युलोकस्थ सूर्य के ताप द्वारा भौमजल वाष्पीभूत होकर अन्तरिक्ष में जाता, और अन्तरिक्ष से वर्षारूप में भूमि पर आकर नानाविध रसों अदि के रूप में प्रकट होता और सुकर्मों के कराने में हेतु होता है। नु= क्षिप्रम् (निरुक्त ११।४,५०, रोदसी पद (३६)]