अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 123/ मन्त्र 5
सूक्त - भृगु
देवता - विश्वे देवाः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सौमनस्य सूक्त
नाके॑ राज॒न्प्रति॑ तिष्ठ॒ तत्रै॒तत्प्रति॑ तिष्ठतु। वि॒द्धि पू॒र्तस्य॑ नो राज॒न्त्स दे॑व सु॒मना॑ भव ॥
स्वर सहित पद पाठनाके॑ । रा॒ज॒न् । प्रति॑ । ति॒ष्ठ॒ । तत्र॑ । ए॒तत् । प्रति॑ । ति॒ष्ठ॒तु॒ । वि॒ध्दि । पू॒र्तस्य॑ । न॒: । रा॒ज॒न् । स: । दे॒व॒ । सु॒ऽमना॑: । भ॒व॒ ॥१२३.५॥
स्वर रहित मन्त्र
नाके राजन्प्रति तिष्ठ तत्रैतत्प्रति तिष्ठतु। विद्धि पूर्तस्य नो राजन्त्स देव सुमना भव ॥
स्वर रहित पद पाठनाके । राजन् । प्रति । तिष्ठ । तत्र । एतत् । प्रति । तिष्ठतु । विध्दि । पूर्तस्य । न: । राजन् । स: । देव । सुऽमना: । भव ॥१२३.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 123; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
(राजन्) हे परिवार के शासक ! (नाके) मोक्षसाधन में (प्रतितिष्ठ) तू दृढ़तापूर्वक स्थित हो जा, (तत्र) उस मोक्षसाधन में (एतत्) यह [मन्त्र ४ में कथित कर्मकलाप भी] (प्रतितिष्ठतु) स्थिर रहे। (राजन्) हे शासक ! (नः) हमारे (पूर्तस्य) पूर्तकर्म को भी (विद्धि) जानता रह, (देव) हे पितृदेव ! (सः) वह तू (सुमना:) प्रसन्नचित्त (भव) हो।
टिप्पणी -
[मोक्षाभिलाषी अभी तक घर में ही है। उसे पारिवारिकजन आश्वासन दे रहे हैं, ताकि मोक्षसाधन में वह प्रसन्नचित्त रहे, और इसकी भी उसे सूचना मिलती रहे कि परिवार में पूर्तकम यथावत् हो रहा है। पूर्तस्य= कर्मणि षष्ठी। पूर्त= वापीकूपतटाकनिर्माणादि पूर्तम् (सायण)। ये कर्म सामाजिक सेवारूप हैं।]