अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 123/ मन्त्र 3
सूक्त - भृगु
देवता - विश्वे देवाः
छन्दः - द्विपदा साम्न्यनुष्टुप्
सूक्तम् - सौमनस्य सूक्त
देवाः॒ पित॑रः॒ पित॑रो॒ देवाः॑। यो अस्मि॒ सो अ॑स्मि ॥
स्वर सहित पद पाठदेवा॑: । पित॑र: । पित॑र: । देवा॑: । य: । अस्मि॑ । स: । अ॒स्मि॒ ॥१२३.३॥
स्वर रहित मन्त्र
देवाः पितरः पितरो देवाः। यो अस्मि सो अस्मि ॥
स्वर रहित पद पाठदेवा: । पितर: । पितर: । देवा: । य: । अस्मि । स: । अस्मि ॥१२३.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 123; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(देवा:) देव हैं (पितरः) माता-पिता भादि (वितरः) माता-पिता आदि है (देवाः) देव। (य) जो (अस्मि) मैं हू, (सः) वह (अस्मि) में हूं।
टिप्पणी -
[मन्त्र (२) में "देवाः" पद पठित है। उसका अभिप्राय है पितरः१ आदि। मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, अतिथिदेवो भव, आचार्यदेवो भव आदि में "देव" पद द्वारा जीवित देवों का अभिप्राय है। यजमान अभी गृहस्थ आश्रम में निवास कर रहा है। इसलिये वह कहता है कि जो मैं गृहस्थी हूं, वह मैं अभी तक गृहस्थी ही हूं। यह अभिप्राय मन्त्र (४) द्वारा स्पष्ट है।] [१. जिनमें रक्षा करने की शक्ति हैं, वे हैं "पितरः" पा रक्षणे (अदादि), मृतों में रक्षा शक्ति नहीं होती अतः ये पितरः नहीं। उन्हें पितरः कहा जाता है "भूतपूर्व रक्षक होने से"।]