अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 132/ मन्त्र 5
यं मि॒त्रावरु॑णौ स्म॒रमसि॑ञ्चताम॒प्स्वन्तः शोशु॑चानं स॒हाध्या। तं ते॑ तपामि॒ वरु॑णस्य॒ धर्म॑णा ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । मि॒त्रावरु॑णौ । स्म॒रम् । असि॑ञ्चताम् । अ॒प्ऽसु । अ॒न्त: । शोशु॑चानम् । स॒ह । आ॒ध्या । तम् । ते॒ । त॒पा॒मि॒ । वरु॑णस्य । धर्म॑णा ॥१३२.५॥
स्वर रहित मन्त्र
यं मित्रावरुणौ स्मरमसिञ्चतामप्स्वन्तः शोशुचानं सहाध्या। तं ते तपामि वरुणस्य धर्मणा ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । मित्रावरुणौ । स्मरम् । असिञ्चताम् । अप्ऽसु । अन्त: । शोशुचानम् । सह । आध्या । तम् । ते । तपामि । वरुणस्य । धर्मणा ॥१३२.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 132; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
(मित्रावरुणा) प्राण और अपान। शेष पूर्ववत् मन्त्र (१)।
टिप्पणी -
[प्राण है बाहर की वायु का नासिक द्वारा फेफड़ों और शरीर में प्रवेश तथा अपान है शरीर से उसका अपगत होना। अपान द्वारा शरीर के मल के निकल जाने से शरीर की शुद्धि होती रहती है। इस दृष्टि से गुदा द्वारा वायु भी अपगत हुई पेट को शुद्ध करती है। अतः इस वायु को भी अपन कहते हैं। प्राण और अपान की सत्ता में शरीर में स्मर की सत्ता होती है। प्राण अपान सर्व प्राणियों में विद्यमान रहते हैं, अतः स्मर की सत्ता भी सर्वप्राणिसमान है।] विशेष सूक्त १३० १३१, १३२ में किसी ऐतिहासिक वृत्त का कथन नहीं। पति-पत्नी के परस्पर मनोमालिन्य में गृहजीवन में जो स्थिति प्रायः उपस्थित हो जाती है, उसी का कथन इन सूक्तों में हुआ है।]