Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 140/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वा
देवता - ब्रह्मणस्पतिः
छन्दः - उरोबृहती
सूक्तम् - सुमङ्गलदन्त सूक्त
यौ व्या॒घ्रावव॑रूढौ॒ जिघ॑त्सतः पि॒तरं॑ मा॒तरं॑ च। तौ दन्तौ॑ ब्रह्मणस्पते शि॒वौ कृ॑णु जातवेदः ॥
स्वर सहित पद पाठयौ । व्या॒घ्रौ । अव॑ऽरूढौ । जिघ॑त्सत: । पि॒तर॑म् । मा॒तर॑म् । च॒ । तौ । दन्तौ॑ । ब्र॒ह्म॒ण॒: । प॒ते॒ । शि॒वौ । कृ॒णु॒ । जा॒त॒ऽवे॒द॒: ॥१४०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यौ व्याघ्राववरूढौ जिघत्सतः पितरं मातरं च। तौ दन्तौ ब्रह्मणस्पते शिवौ कृणु जातवेदः ॥
स्वर रहित पद पाठयौ । व्याघ्रौ । अवऽरूढौ । जिघत्सत: । पितरम् । मातरम् । च । तौ । दन्तौ । ब्रह्मण: । पते । शिवौ । कृणु । जातऽवेद: ॥१४०.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 140; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(व्याघ्रौ) व्याघ्रनामक या व्याघ्रवत् काटने वाले (यौ) जो दो दान्त (अवरूढौ) ऊपर के हनु में अवाङ्मुख होकर उत्पन्न हुए हैं, (च) और (पितरम्, मातरम्) पितृत्व तथा मातृत्व शक्ति सम्पन्न प्राणियों को (जिघत्सतः) खाने की इच्छा करते हैं, (तौ दन्तौ) उन दो दान्तों को, (जातवेद: ब्रह्मणस्पते) हे सर्वज्ञ वेद स्वामी ! (शिव) सुखकारी (कृणु) कर।
टिप्पणी -
[काटना सामने के दो दान्तों द्वारा होता है और प्रथमोत्पन्न ऊपर के दो दान्त काटकर खाने के लिये परमेश्वर उत्पन्न करता है। ये दान्त, प्राणि-पशुपक्षियों को काट कर खाने के लिए नहीं दिये, अपितु [मन्त्र (२)] में कथित वस्तुओं को काट कर खाने के लिये परमेश्वर ने दिये हैं। दन्तारोहण के काल में शिशु पीड़ा अनुभव करते और रुग्ण हो जाते हैं, अतः परमेश्वर से प्रार्थना है कि वह इस काल को शिशु के लिये सुखकारी करे।]