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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 23/ मन्त्र 2
सूक्त - शन्ताति
देवता - आपः
छन्दः - त्रिपदा गायत्री
सूक्तम् - अपांभैषज्य सूक्त
ओता॒ आपः॑ कर्म॒ण्या॑ मु॒ञ्चन्त्वि॒तः प्रणी॑तये। स॒द्यः कृ॑ण्व॒न्त्वेत॑वे ॥
स्वर सहित पद पाठआऽउ॑ता: । आप॑: । क॒र्म॒ण्या᳡: । मु॒ञ्चन्तु॑ । इ॒त: । प्रऽनी॑तये । स॒द्य: । कृ॒ण्व॒न्तु॒ । एत॑वे ॥२३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
ओता आपः कर्मण्या मुञ्चन्त्वितः प्रणीतये। सद्यः कृण्वन्त्वेतवे ॥
स्वर रहित पद पाठआऽउता: । आप: । कर्मण्या: । मुञ्चन्तु । इत: । प्रऽनीतये । सद्य: । कृण्वन्तु । एतवे ॥२३.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 23; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(कर्मण्याः) कर्मों के साधक (आपः) जल (ओताः) कर्मों में ओतप्रोत हैं, [ये जल ] (इतः) यहां से (मुञ्चन्तु) वाञ्छनीय जल को मुक्त करें, त्यागें, (प्रणीतये) शीघ्र ले जाने के लिये। और (सद्य:) शीघ्र (एतवे) गति के लिये (कृण्वन्तु) इन्हें करें ।
टिप्पणी -
[मन्त्र वर्णन कवितामय है। नदी के मुख्य जलों से कहा है कि तुम निज एक हिस्से को कुल्या अर्थात् छोटो नहर के रूप में मुक्त करो ताकि हम उसे प्रकृष्ट गति के साथ अपने स्थान तक ले जांय, और हमारी सहायता करो कि शीघ्र ही जल हमें प्राप्त हो जाय। एतवे =इष यती, गतेस्त्रयोऽर्थाः, ज्ञानं गतिः प्राप्तिश्च । एतवे=इण् + तवेन्। प्रवाही मुख्य जलों के प्रति आत्मीय अङ्गभूत जलों को मुक्त करने की अभिलाषा प्रकट की है। "दोष्यते, सुषम्णः सूर्यरश्मिः"। [मन्त्र में छोटी या बड़ी कुल्या का वर्णन है। अन्यत्र कुल्या का वर्णन यथा (अथर्व० ११।३।१३; १८।३।७२; ४।५।७; २०।१७।७; ५।१९।३)]।