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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 26/ मन्त्र 1
अव॑ मा पाप्मन्त्सृज व॒शी सन्मृ॑डयासि नः। आ मा॑ भ॒द्रस्य॑ लो॒के पाप्म॑न्धे॒ह्यवि॑ह्रुतम् ॥
स्वर सहित पद पाठअव॑ । मा॒ । पा॒प्म॒न् । सृ॒ज॒ । व॒शी । सन् । मृ॒ड॒या॒सि॒ । न॒: । आ । मा॒ । भ॒द्रस्य॑ । लो॒के । पा॒प्म॒न् । धे॒हि॒ । अवि॑ऽह्रुतम् ॥२६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अव मा पाप्मन्त्सृज वशी सन्मृडयासि नः। आ मा भद्रस्य लोके पाप्मन्धेह्यविह्रुतम् ॥
स्वर रहित पद पाठअव । मा । पाप्मन् । सृज । वशी । सन् । मृडयासि । न: । आ । मा । भद्रस्य । लोके । पाप्मन् । धेहि । अविऽह्रुतम् ॥२६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 26; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(पाप्मन्) हे पाप ! (मा) मुझे (अवसृज) छोड़ दे, ( वशी सन् ) वश में हुआ तू (नः) हमें (मृडयासि) सुखी कर (मा) मुझे (पाप्मन्) हे पाप ! (भद्रस्य) कल्याणी और सुखी ( लोके) समाज में (अविह्रुतम्) कुटिल कर्मों से रहित करके (आधेहि) स्थापित कर।
टिप्पणी -
[मा, नः= अस्मदो द्वयोश्च (अष्टा० १।२।५९) द्वारा एकवचन के स्थान में बहुवचन। पाप जब वशीभूत हो जाता है, तब व्यक्ति कुटिलकर्म नहीं करता और कल्याणी तथा सुखी सामाजिक जीवन व्यतीत करता है। अविह्रुतम्= अ+ वि+ह्रु कौटिल्ये। मान्त्रिक कथन में कविता में पाप सम्बोधित हुआ है।]