Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 26/ मन्त्र 3
अ॒न्यत्रा॒स्मन्न्युच्यतु सहस्रा॒क्षो अम॑र्त्यः। यं द्वेषा॑म॒ तमृ॑च्छतु॒ यमु॑ द्वि॒ष्मस्तमिज्ज॑हि ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒न्यत्र॑ । अ॒स्मत् । नि । उ॒च्य॒तु॒ । स॒ह॒स्र॒ऽअ॒क्ष: । अम॑र्त्य: । यम् । द्वेषा॑म् । तम् । ऋ॒च्छ॒तु॒ । यम् । ऊं॒ इति॑ । द्वि॒ष्म: । तम् । इत् । ज॒हि॒ ॥२६.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्यत्रास्मन्न्युच्यतु सहस्राक्षो अमर्त्यः। यं द्वेषाम तमृच्छतु यमु द्विष्मस्तमिज्जहि ॥
स्वर रहित पद पाठअन्यत्र । अस्मत् । नि । उच्यतु । सहस्रऽअक्ष: । अमर्त्य: । यम् । द्वेषाम् । तम् । ऋच्छतु । यम् । ऊं इति । द्विष्म: । तम् । इत् । जहि ॥२६.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 26; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(सहस्राक्षः) हजारों का क्षय करने वाला, (अमर्त्यः) न मारा जाने वाला पाप, (अस्मत् अन्यत्र) हम से भिन्न व्यक्ति में (न्युच्यतु =नि उच्यतु) नितराम् समवाय सम्बन्ध में चिपटा रहे। (यम्) जिस पापी के साथ (द्वेषाम) हम प्रीति नहीं करते (तम्) उसे ( ऋच्छतु) प्राप्त हो, ( यम् उ ) जिस के साथ ही ( द्विष्मः ) हम प्यार नहीं करते ( तम् इत् ) उसे ही (जहि) हे पाप तू नष्ट कर, उस का ही हनन कर।
टिप्पणी -
[सहस्राक्षः = सहस्र+आ+क्षः (क्षि क्षये, भ्वादिः)। पापवृत्तियां कठिनाई से क्षीण होती हैं अतः इन्हें अमर्त्य कहा है। मन्त्र में अप्रीति करने का बहुत्व है, और अप्रिय का एकत्व। सामाजिक जीवन में समाज, जिस पापी को समाज में रहने से आपत्तिजनक समझे उसे मृत्युदण्ड दे सकता है। मानो पाप ही पापी का हनन कर रहा है।