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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 33/ मन्त्र 1
सूक्त - जाटिकायन
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
सूक्तम् - इन्द्रस्तव सूक्त
यस्ये॒दमा रजो॒ युज॑स्तु॒जे जना॒ वनं॒ स्वः॑। इन्द्र॑स्य॒ रन्त्यं॑ बृ॒हत् ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । इ॒दम् । आ । रज॑: । युज॑: । तु॒जे । जना॑:। वन॑म् । स्व᳡: । इन्द्र॑स्य । रन्त्य॑म् । बृ॒हत् ॥३३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्येदमा रजो युजस्तुजे जना वनं स्वः। इन्द्रस्य रन्त्यं बृहत् ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य । इदम् । आ । रज: । युज: । तुजे । जना:। वनम् । स्व: । इन्द्रस्य । रन्त्यम् । बृहत् ॥३३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 33; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(जनाः) हे प्रजाजनो! (आयुजः) सर्वत्र ब्रह्माण्ड में योजनाओं वाले (यस्य) जिस इन्द्र अर्थात् परमेश्वर्यवान् परमेश्वर का ( इदम् ) यह ( रज:) मनोरञ्जक पृथिवीमण्डल है, उसी (इन्द्रस्य) परमेश्वर का (रन्त्यम) रमणीय (बृहत्) महत् ब्रह्माण्ड है। उस का, (तुजे) ईर्ष्या आदि की हिंसा के लिये, (स्वः) सुख स्वरूप (वनम्) याचनीय है, प्रार्थनीय है।
टिप्पणी -
[ब्रह्माण्ड में सर्वत्र परमेश्वर की योजनाएं प्रतीत होती हैं। योजनाएं बुद्धि पूर्वक होती हैं, और उन में क्रम विशेष और पारस्परिक समन्वय होता है। ईर्ष्या आदि के विनाश के लिये परमेश्वर के सुख स्वरूप की याचना करनी चाहिये। तुजे= तुज हिंसायाम् (भ्वादिः)]।