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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 38/ मन्त्र 4
सूक्त - अथर्वा
देवता - बृहस्पतिः, त्विषिः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - वर्चस्य सूक्त
रा॑ज॒न्ये दुन्दु॒भावाय॑ताया॒मश्व॑स्य॒ वाजे॒ पुरु॑षस्य मा॒यौ। इन्द्रं॒ या दे॒वी सु॒भगा॑ ज॒जान॒ सा न॒ ऐतु॒ वर्च॑सा संविदा॒ना ॥
स्वर सहित पद पाठरा॒ज॒न्ये᳡ । दु॒न्दु॒भौ । आऽय॑तायाम् । अश्व॑स्य । वाजे॑ । पुरु॑षस्य । मा॒यौ । इन्द्र॑म् । या । दे॒वी । सु॒ऽभगा॑ । ज॒जान॑ । सा । न॒: । आ । ए॒तु॒ । वर्च॑सा । स॒म्ऽवि॒दा॒ना ॥३८.४॥
स्वर रहित मन्त्र
राजन्ये दुन्दुभावायतायामश्वस्य वाजे पुरुषस्य मायौ। इन्द्रं या देवी सुभगा जजान सा न ऐतु वर्चसा संविदाना ॥
स्वर रहित पद पाठराजन्ये । दुन्दुभौ । आऽयतायाम् । अश्वस्य । वाजे । पुरुषस्य । मायौ । इन्द्रम् । या । देवी । सुऽभगा । जजान । सा । न: । आ । एतु । वर्चसा । सम्ऽविदाना ॥३८.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 38; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
(राजन्ये) रागयुक्त क्षत्रिय में, (दुन्दुभं) ढोल में, ( आयतायाम् ) धनुष् में चढ़ाई डोरी [ज्या] में, (अश्वस्य वाजे) अश्व की गति में, ( पुरुषस्य) पुरुष के (मायौ) शब्द में [जो दीप्ति है, "सा ऐतु", वह ( न:) हमें प्राप्त हो] (इन्द्रम्) आदि पूर्ववत् ।
टिप्पणी -
[राजन्ये= 'सोऽरज्यत ततो राजन्योऽजायत'। "स विशोनु व्यचलत" (अथर्व० काण्ड १५। अनुवाक २, पर्याय १। मन्त्र १; तथा (अथर्व का० १५। अनुवाक २। पर्याय २। मन्त्र १)। अर्थात् वह क्षत्रिय रागयुक्त हुआ [रञ्ज रागे, दिवादिः], तत्पश्चात् "राजन्य" हुआ। "वह प्रजाओों के अनुकूल होकर चला"। अभिप्राय यह कि क्षत्रिय जब प्रजाओं में राग अर्थात् अनुराग वाला होता है तो वह "राजन्य" कहाता है। प्रजाओं में अनुराग के कारण वह प्रजाओं की अनुकूलता में राज्य करता है। अत: राजन्य में दीप्ति है-प्रजाओं में अनुराग और प्रजाओं की अनुकलता में शासन करना। दुन्दुभि= ढोल जब बजता है तब लोगों का ध्यान उस की ओर आकृष्ट हो जाता है। अतः ध्यानाकर्षण उसकी दीप्ति है। आयत-धनुष भय का कारण होता है । अत: भय प्रदत्व उसकी दीप्ति है। अश्व की चाल में शान यह अश्व की चाल में दीप्ति है। वाजे = वज व्रज गतौ। पुरुषस्य मायौ = मन्त्र २ में "पुरुषेषु" द्वारा पुरुषनिष्ठ दीप्ति का वर्णन हुआ है। मन्त्र ४ में पुरुष की “मायु" में की दीप्ति का कथन हुआ है। मायुः= पित्त (उणा० १।१, दयानन्द भाष्य), पित्त प्रकृतिक पुरुष में क्रोध होता है यह उसकी दीप्ति है।