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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 65/ मन्त्र 3
सूक्त - अथर्वा
देवता - इन्द्रः, पराशरः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
इन्द्र॑श्चकार प्रथ॒मं नै॑र्ह॒स्तमसु॑रेभ्यः। जय॑न्तु॒ सत्वा॑नो॒ मम॑ स्थि॒रेणेन्द्रे॑ण मे॒दिना॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑: । च॒का॒र॒ । प्र॒थ॒मम् । नै॒:ऽह॒स्तम् । असु॑रेभ्य: । जय॑न्तु । सत्वा॑न: । मम॑ ।स्थि॒रेण॑ । इन्द्रे॑ण । मे॒दिना॑ ॥६५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रश्चकार प्रथमं नैर्हस्तमसुरेभ्यः। जयन्तु सत्वानो मम स्थिरेणेन्द्रेण मेदिना ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र: । चकार । प्रथमम् । नै:ऽहस्तम् । असुरेभ्य: । जयन्तु । सत्वान: । मम ।स्थिरेण । इन्द्रेण । मेदिना ॥६५.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 65; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(इन्द्रः) सम्राट् ने (प्रथमम्) पहिले (असुरेभ्यः) देवविरोधी प्राणपोषकों के लिये (नैर्हस्तम्) निहत्थेपन का (चकार) दण्ड दिया। (मेदिना) स्नेही तथा (स्थिरेण) साम्राज्य पद पर स्थिर (इन्द्रेण) सम्राट् की सहायता द्वारा (मम) मुझ सेनाधिपति के (सत्वानः) शक्तिशाली सैनिक (जयन्तु) शत्रु पर विजय पाएं।
टिप्पणी -
[इन्द्रः= "इन्द्रश्च सम्राट् वरुणश्च राजा" (यजु० ८।३७)। असुरेभ्यः =जो केवल जीवन का उद्देश्य प्राणपोषण मात्र मानते हैं अतः देवविरोधी हैं, जो देव कि जीवन को दिव्य बनाने के पक्ष में हैं। इन्द्र स्नेही है। अतः युद्ध में स्वाश्रित सेनाधिपति को असुरों के साथ युद्ध में सब प्रकार की सहायता देता है]।