Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 67/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वा
देवता - चन्द्रः, इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
परि॒ वर्त्मा॑नि स॒र्वत॒ इन्द्रः॑ पू॒षा च॑ सस्रतुः। मुह्य॑न्त्व॒द्यामूः सेना॑ अमित्राणां परस्त॒राम् ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । वर्त्मा॑नि । स॒र्वत॑: । इन्द्र॑: । पू॒षा । च॒ । स॒स्र॒तु॒: । मुह्य॑न्तु । अ॒द्य । अ॒मू: । सेना॑:। अ॒मित्रा॑णाम् । प॒र॒:ऽत॒राम् ॥६७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
परि वर्त्मानि सर्वत इन्द्रः पूषा च सस्रतुः। मुह्यन्त्वद्यामूः सेना अमित्राणां परस्तराम् ॥
स्वर रहित पद पाठपरि । वर्त्मानि । सर्वत: । इन्द्र: । पूषा । च । सस्रतु: । मुह्यन्तु । अद्य । अमू: । सेना:। अमित्राणाम् । पर:ऽतराम् ॥६७.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 67; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(इन्द्र:) सम्राट (च) और (पूषा) पोषणाधिकारी (सर्वतः) सब ओर के (वर्त्मानि) मार्गों के (परि सस्रतुः) सब ओर गए हैं। (अमित्राणाम्) बाकि शत्रुओं की (अमूः) वे (सेना:) सेनाएं, (अद्य) आज या अब, (परस्तराम्) अतिशयेन (मुह्यन्तु) कार्याकार्य के विवेक से ज्ञानरहित हो जाय।
टिप्पणी -
[युद्ध से पूर्व सम्राट् और पोषक पदार्थों का अधिकारी साम्राज्य के सब मार्गों का निरीक्षण स्वयं करें या करवाएं कि शत्रु सेनाएं किस-किस मार्ग से आक्रमण कर सकती हैं, और किस-किस मार्ग से अपनी सेना को आयुध और खाद्य सामग्री पहुंचाई जा सकती है। इस का निरीक्षण कर, यथोचित प्रबन्ध करें, ताकि शत्रु सेनाओं का सब प्रयत्न विफल हो जाय। सस्रतुः सृ गतौ (भ्वादिः)]।