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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 67/ मन्त्र 3
सूक्त - अथर्वा
देवता - चन्द्रः, इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
ऐषु॑ नह्य॒ वृषा॒जिनं॑ हरि॒णस्या॒ भियं॑ कृधि। परा॑ङ॒मित्र॒ एष॑त्व॒र्वाची॒ गौरुपे॑षतु ॥
स्वर सहित पद पाठआ । ए॒षु॒ । न॒ह्य॒ । वृषा॑ । अ॒जिन॑म् । ह॒रि॒णस्य॑ । भिय॑म् । कृ॒धि॒ । परा॑ङ् । अ॒मित्र॑: । एष॑तु । अ॒र्वाची॑ । गौ: । उप॑ । ए॒ष॒तु॒॥६७.३॥
स्वर रहित मन्त्र
ऐषु नह्य वृषाजिनं हरिणस्या भियं कृधि। पराङमित्र एषत्वर्वाची गौरुपेषतु ॥
स्वर रहित पद पाठआ । एषु । नह्य । वृषा । अजिनम् । हरिणस्य । भियम् । कृधि । पराङ् । अमित्र: । एषतु । अर्वाची । गौ: । उप । एषतु॥६७.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 67; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(बृषा) हे समाट् ! सुखवर्षी तू (हरिणस्य) हरिण अर्थात् मृगों के (अजिनम्) चर्मों को (एषु) इन निज सैनिकों में (आ नह्य) बान्ध, (अभयम्१ कृधि) और हमें भय रहित कर। (अमित्रः) शत्रु (पराङ्) पराङ्मुख होकर (एषतु) चला जाय, और (गौः) उन की पृथिवी (अर्वाची) हमारी ओर (उप) हमारे पास (एषतु) आ जाय [उन का राज्य हमारे अधीन हो जाय]।
टिप्पणी -
[मन्त्र में हरिणस्य जात्येकवचन है। क्योंकि "एषु" पद द्वारा निज सैनिकों का बहुत्व दर्शाया है। गौः पृथिवीनाम (निघं० १।१)। मृगचर्मो की कवचों से शत्रु के वाणों का भय नहीं रहता]।[१. पदपाठ में "भियं कृधि" पाठ है। अर्थात् शत्रु के लिये भय पैदा कर। वे यह जान कर भयभीत हों कि ये हरिण कोई अद्भुत शक्तिया है जो कि युद्ध कर ही हैं, ये हमारे नाश कर देंगी। अत: वे युद्धस्थल से भाग जाय।]