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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 73/ मन्त्र 3
सूक्त - अथर्वा
देवता - वास्तोष्पतिः
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
सूक्तम् - सांमनस्य सूक्त
इ॒हैव स्त॒ माप॑ या॒ताध्य॒स्मत्पू॒षा प॒रस्ता॒दप॑थं वः कृणोतु। वास्तो॒ष्पति॒रनु॑ वो जोहवीतु॒ मयि॑ सजाता र॒मति॑र्वो अस्तु ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒ह । ए॒व । स्त॒ । मा । अप॑ । या॒त॒ । अधि॑ । अ॒स्मत् । पू॒षा । प॒रस्ता॑त् । अप॑थम् । व॒: । कृ॒णो॒तु॒ । वास्तो॑: । पति॑: । अनु॑ । व॒: । जो॒ह॒वी॒तु॒ । मयि॑ । स॒ऽजा॒ता॒: । र॒मति॑: । व॒: । अ॒स्तु॒ ॥७३.३॥
स्वर रहित मन्त्र
इहैव स्त माप याताध्यस्मत्पूषा परस्तादपथं वः कृणोतु। वास्तोष्पतिरनु वो जोहवीतु मयि सजाता रमतिर्वो अस्तु ॥
स्वर रहित पद पाठइह । एव । स्त । मा । अप । यात । अधि । अस्मत् । पूषा । परस्तात् । अपथम् । व: । कृणोतु । वास्तो: । पति: । अनु । व: । जोहवीतु । मयि । सऽजाता: । रमति: । व: । अस्तु ॥७३.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 73; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
[हे अभ्यागतो !] (इह एव) यहां ही [मेरे आतिथ्य में] (स्त) होओ रहो, (मा अपयात) हम से जुदा न होओ। (पूषा) अन्नादि द्वारा पोषक अधिकारी (परस्तात्) हम से परे जाने में (वः) तुम्हारा (अपथम्) मार्गरोध (कृणोतु) करे। (वास्तोष्पतिः) राजकीय गृहों का स्वामी (अनु) निरन्तर (वः) तुम्हारा (जोहवीतु) बार-बार आह्वान करता रहे (सजाताः) ताकि हे साम्राज्य में उत्पन्न हुए साम्राज्य के पुत्रों! (मयि) मुझ में (वः) तुम्हारी (रमति:) प्रेमासक्ति (अस्तु) हो, बनी रहे ।
टिप्पणी -
[सम्राट् का भाषण है अभ्यागतों के प्रति, जो कि सम्राट् के दरबार में उपस्थित हुए हैं। सम्राट् कहता है कि साम्राज्य का पोषक-अधिकारी पोषकसामग्री द्वारा तुम्हारी इतनी सेवा करे कि वापिस जाने का तुम्हारा मार्ग और अधिक काल तक रुका रहे। तथा साम्राज्य का वास्तोष्पति तुम्हें पुनः-पुनः आने का आह्वान करता रहे, तुम्हें आमन्त्रित करता रहे। इस प्रकार तुम्हारी प्रेमासक्ति को मैं प्राप्त करता रहूं।]