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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 74/ मन्त्र 3
सूक्त - अथर्वा
देवता - सामंनस्यम्, नाना देवताः, त्रिणामा
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सांमनस्य सूक्त
यथा॑दि॒त्या वसु॑भिः सम्बभू॒वुर्म॒रुद्भि॑रु॒ग्रा अहृ॑णीयमानाः। ए॒वा त्रि॑णाम॒न्नहृ॑णीयमान इ॒माञ्जना॒न्त्संम॑नसस्कृधी॒ह ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । आ॒दि॒त्या: । वसु॑ऽभि: । स॒म्ऽब॒भू॒वु: । म॒रुत्ऽभि॑: । उ॒ग्रा: । अहृ॑णीयमाना: । ए॒व । त्रि॒ऽना॒म॒न् । अहृ॑णीयमान: । इ॒मान् । जना॑न् । सम्ऽम॑नस: । कृ॒धि॒ । इ॒ह ॥७४.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यथादित्या वसुभिः सम्बभूवुर्मरुद्भिरुग्रा अहृणीयमानाः। एवा त्रिणामन्नहृणीयमान इमाञ्जनान्त्संमनसस्कृधीह ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । आदित्या: । वसुऽभि: । सम्ऽबभूवु: । मरुत्ऽभि: । उग्रा: । अहृणीयमाना: । एव । त्रिऽनामन् । अहृणीयमान: । इमान् । जनान् । सम्ऽमनस: । कृधि । इह ॥७४.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 74; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(यथा) जिस प्रकार (आदित्याः) आदित्यकोटि के विद्वान् (वसुभि:) वसु कोटि के विद्वानों के साथ (संबभूवु:) सांमनस्य में होते हैं, (उग्राः) उग्र बलवाले क्षत्रिय सेनाध्यक्ष (मरुद्धिः) मारने में कुशल सैनिकों के साथ (अहृणीयमानाः) विना लज्जा और संकोच के (संबभूवुः) सांमनस्य में होते हैं, (एवा) इसी प्रकार (त्रिणामन्)१ तीन लोकों को अपने प्रति नमानेवाले, झुकानेवाले, उन्हें पराजित करनेवाले हे परमेश्वर! (अहृणीयमानः) विना संकोच किये तू (इमान्) इन (जनान्) प्रजाजनों को (संमनसः) परस्पर सामनस्य वाले, तथा निज के साथ मिले मनोंवाले (इह) इस जगत् में (कृधि) कर।
टिप्पणी -
[आदित्य उच्चकोटि के विद्वान हैं, और वसु निचली कोटि के विद्वान् हैं, तब भी गुरुकुलों में परसर सामनस्य में रहते हैं, प्रेमपूर्वक रहते हैं। उग्र सेनाध्यक्ष और सेनाधिपति तथा सैनिक एक-सैनिक स्थान में भी परस्पर सांमनस्य अर्थात् प्रेम में रहते हैं, इसी प्रकार नागरिक प्रजाजनों को भी परस्पर सांमनस्य अर्थात् प्रेम में रहना चाहिये, तथा उपास्य और उपासक में भी परस्पर अनुरागयुक्त होना चाहिए।] [१. तथा ओ३म् के अ, उ, म् इन तीन अक्षरों द्वारा निर्दिष्ट नामों वाले ! (माण्डू उप०; तथा सत्यार्थप्रकाश प्रथम समुल्लास)।]