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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 80/ मन्त्र 2
सूक्त - अथर्वा
देवता - चन्द्रमाः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अरिष्टक्षयण सूक्त
ये त्रयः॑ कालका॒ञ्जा दि॒वि दे॒वा इ॑व श्रि॒ताः। तान्सर्वा॑नह्व ऊ॒तये॒ऽस्मा अ॑रि॒ष्टता॑तये ॥
स्वर सहित पद पाठये । त्रय॑: । का॒ल॒का॒ञ्जा: । दि॒वि । दे॒वा:ऽइ॑व । श्रि॒ता: । तान् । सर्वा॑न् । अ॒ह्वे॒ । ऊ॒तये॑ । अ॒स्मै । अ॒रि॒ष्टऽता॑तये ॥८०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
ये त्रयः कालकाञ्जा दिवि देवा इव श्रिताः। तान्सर्वानह्व ऊतयेऽस्मा अरिष्टतातये ॥
स्वर रहित पद पाठये । त्रय: । कालकाञ्जा: । दिवि । देवा:ऽइव । श्रिता: । तान् । सर्वान् । अह्वे । ऊतये । अस्मै । अरिष्टऽतातये ॥८०.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 80; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(ये) जो (त्रयः) तीन (कालकाञ्जा:) काल को अभिव्यक्त करनेवाले (दिवि) द्युलोक में (देवाः) अन्य देवों अर्थात् द्योतमान तारा-नक्षत्रों (इव) के सदृश (श्रिताः) आश्रित हैं, (तान् सर्वान्) उन सब अर्थात् दोनों का (अह्व) मैं आह्वान करता हूँ (ऊतये) रक्षा के लिये और (अस्मै अरिष्टतातये) इस अविनाश के करने के लिये या विस्तार के लिये।
टिप्पणी -
[कालकाञ्जाः = काल+ क (स्वार्थे) + अञ्जू व्यक्तिभ्रक्षणकान्तिगतिषु (रुधादिः)। ये तीन हैं सूर्य, चन्द्रमा तया सप्तर्षिमण्डल। तीनों द्वारा काल की अभिव्यक्ति होती है। राष्ट्रिय तथा सामाजिक और वैयक्तिक कालगणना के लिये इन तीनों१ कालों का आह्वान करना चाहिये, इस से लेखे ठीक रहते हैं, उनका विनाश नहीं होता। अथवा कालकाञ्जा:= काल + कृ (डः औणादिकः (२।६७), डित्वात् टिलोपः)+ अञ्जू (अभिव्यक्तिः)२]। [१. जैसे कि वर्तमान में विक्रम, ईसा, शक आदि कालों का प्रयोग होता है वैसे सौरकाल, चान्द्रकाल और सप्तर्पिकाल का प्रयोग व्यवहार में चाहिये। २. काल का निर्माण करने वाले तथा उस की अभिव्यक्ति करने वाले तीन, सूर्य, चन्द्रमा, सप्तर्षिमण्डल]