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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 84/ मन्त्र 4
सूक्त - अङ्गिरा
देवता - निर्ऋतिः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - निर्ऋतिमोचन सूक्त
अ॑य॒स्मये॑ द्रुप॒दे बे॑धिष इ॒हाभिहि॑तो मृ॒त्युभि॒र्ये स॒हस्र॑म्। य॒मेन॒ त्वं पि॒तृभिः॑ संविदा॒न उ॑त्त॒मं नाक॒मधि॑ रोहये॒मम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒य॒स्मये॑ । द्रु॒ऽप॒दे । बे॒धि॒षे॒ । इ॒ह । अ॒भिऽहि॑त: । मृ॒त्युऽभि॑: । ये । स॒हस्र॒म् । य॑मेन॑ । त्वम् । पि॒तृऽभि॑: । स॒म्ऽवि॒दा॒न: । उ॒त्ऽत॒मम् । नाक॑म् । अधि॑ । रो॒ह॒य॒ । इ॒मम् ॥८४.४॥
स्वर रहित मन्त्र
अयस्मये द्रुपदे बेधिष इहाभिहितो मृत्युभिर्ये सहस्रम्। यमेन त्वं पितृभिः संविदान उत्तमं नाकमधि रोहयेमम् ॥
स्वर रहित पद पाठअयस्मये । द्रुऽपदे । बेधिषे । इह । अभिऽहित: । मृत्युऽभि: । ये । सहस्रम् । यमेन । त्वम् । पितृऽभि: । सम्ऽविदान: । उत्ऽतमम् । नाकम् । अधि । रोहय । इमम् ॥८४.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 84; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
[हे निर्ऋति !] (अयस्मये) लोहसदृश सुदृढ़ (द्रुपदे) काष्ठनिर्मित पादबन्धन में (वेधिष) तू जब विद्ध कर देती है, तब (ये सहस्रम्) जो सहस्रबिध मृत्युएं हैं उन (मृत्युभिः) मृत्युओं के द्वारा (इह) इस भूलोक में (अभिहितः) जीवात्मा बद्ध हो जाता है। हे मुमुक्षु ! (त्वम्) तु जब (यमेन) नियन्ता परमेश्वर और (पितृभिः) माता-पिता-आचार्यरूपी रक्षकों के साथ (संविधान:) ऐक्यमत का प्राप्त होता है तब हे निर्ऋति ! तु (इमम्) इस (मुमुक्षु) को (उत्तमं नाकम्) सर्वोत्तम नाक पर (अधिरोहय) चढ़।
टिप्पणी -
[जीवात्मा निर्ऋति के कारण विद्ध हो जाता है और नित्य होने के कारण अनादिकाल से हजारों योनियों में जन्म पा कर, सहस्रविध कृच्छ्रापतियों को भोगता, और अपने को बंधा हुआ अनुभव कर मुमुक्षु हो जाता है और नियन्ता परमेश्वर और पितरों द्वारा प्रदत्त मति के साथ ऐक्यमत को प्राप्त हो जाता है, तदनुकूल अपनी मति बना लेता है; तब निर्ऋति इस मुमुक्षु को नाक अर्थात् मोक्ष पद पर अधिरूढ करती है। नाकम् = न+अ+ कम् (सुखम्)। मोक्ष में न तो सांसारिक सुख होता है न किसी प्रकार सुखाभाव ही। अपितु मोक्ष में इन दोनों से भिन्न आनन्दानुभूति होती है। मोक्ष में जीवात्मा का संग परमेश्वर के साथ रहता है और वह परमेश्वरीय आनन्दमात्रा में लीन रहता है। परमेश्वर और पितरों का शिक्षानुसार तदनुरूप मति वाला हुआ भी मुमुक्षु जब तक सांसारिक सुख-दुःखों से विरक्त नहीं होता तब तक वह 'नाक' को प्राप्त नहीं होता। इसलिये 'नाक' पर अधिरोहण में अन्तिम कारण निर्ऋति कहा है। मन्त्र में अपेक्ष्य निर्ऋति पद स्त्रीलिङ्ग में है और 'संविदान:' पद पुंलिङ्ग में है। अतः मन्त्र में दो का वर्णन हुआ है एक का नहीं]।