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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 84/ मन्त्र 1
सूक्त - अङ्गिरा
देवता - निर्ऋतिः
छन्दः - भुरिग्जगती
सूक्तम् - निर्ऋतिमोचन सूक्त
यस्या॑स्त आ॒सनि॑ घो॒रे जु॒होम्ये॒षां ब॒द्धाना॑मव॒सर्ज॑नाय॒ कम्। भूमि॒रिति॑ त्वाभि॒प्रम॑न्वते॒ जना॒ निरृ॑ति॒रिति॑ त्वा॒हं परि॑ वेद स॒र्वतः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयस्या॑: । ते॒ । आ॒सनि॑ । घो॒रे । जु॒होमि॑ । ए॒षाम् । ब॒ध्दाना॑म् । अ॒व॒ऽसर्ज॑नाय । कम् । भूमि॑: । इति॑ । त्वा॒ । अ॒भि॒ऽप्रम॑न्वते । जना॑: । नि:ऽऋ॑ति: । इति॑। त्वा॒ । अ॒हम् । परि॑ । वे॒द॒। स॒र्वत॑: ॥८४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्यास्त आसनि घोरे जुहोम्येषां बद्धानामवसर्जनाय कम्। भूमिरिति त्वाभिप्रमन्वते जना निरृतिरिति त्वाहं परि वेद सर्वतः ॥
स्वर रहित पद पाठयस्या: । ते । आसनि । घोरे । जुहोमि । एषाम् । बध्दानाम् । अवऽसर्जनाय । कम् । भूमि: । इति । त्वा । अभिऽप्रमन्वते । जना: । नि:ऽऋति: । इति। त्वा । अहम् । परि । वेद। सर्वत: ॥८४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 84; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(एषाम् बद्धानाम ) इन बद्ध शिष्यों के (अवसर्जनाय) बन्ध से छुटकारे के लिये (कम् अभि) और मोक्षसुख की प्राप्ति को लक्ष्य कर, (यस्याः ते) जिस तुझ के (आसनि) मुख में (जुहोमि) मैं आहुतियां देता हूं, (त्वा) उस तुझ को (जना:) सर्वसाधारण जन (भूमिः इति प्रमन्वते) भूमि मानते हैं, (अहम्) मैं (त्वा) तुझे (सर्वतः) सब ओर विद्यमान (निर्ऋतिः इति) कष्टापत्तिरूप (परिवेद) ठीक प्रकार से जानता हूं।
टिप्पणी -
[कृच्छापत्ति अर्थात् कष्टापत्ति एक उपाय है, जो कि व्यक्ति को संसार से विरक्त कर परमेश्वर की ओर प्रेरित करता है। इस निमित्त शिष्य सद्गुरु का आश्रय लेता है, और परमेश्वरनिमित्त यज्ञविधि द्वारा सद्गुरु उसे शरणागत कर लेता है। वर्णन कविताशैली में मन्त्र में हुआ है। आहुतियां तो यज्ञाग्नि के मुख में ही देनी हैं।१ कम्= यथा 'कमिति सुखनाम, तत्प्रतिषिद्धं प्रतिषिध्येत' (निरुक्त २।४।१४)। भूमिरिति=प्रकृतिवादी यह मानते हैं कि हम भूमि से ही पैदा हुए, भूमि से ही पलते, भूमि में ही रहते, अतः भूमि ही 'निर्ऋति' है। 'निर्ऋति' वस्तुतः कृच्छ्रापत्ति है, कष्टापत्ति है, जो कि व्यक्ति और जनता अर्थात् जनसमुदाय के दुष्कर्मों का परिणाम है, फलरूप है]। [१. मोक्षाभिलाषी शिष्यों के सद्गुरु का कथन सूक्त ८४ में है।]