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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 9/ मन्त्र 3
यासां॒ नाभि॑रा॒रेह॑णं हृ॒दि सं॒वन॑नं कृ॒तम्। गावो॑ घृ॒तस्य॑ मा॒तरो॒ऽमूं सं वा॑नयन्तु मे ॥
स्वर सहित पद पाठयासा॑म् । नाभि॑: । आ॒ऽरेह॑णम् । हृ॒दि। स॒म्ऽवन॑नम् । कृ॒तम् । गाव॑: । घृ॒तस्य॑ । मा॒तर॑: । अ॒भूम् । सम् । व॒न॒य॒न्तु॒ । मे॒ ॥९.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यासां नाभिरारेहणं हृदि संवननं कृतम्। गावो घृतस्य मातरोऽमूं सं वानयन्तु मे ॥
स्वर रहित पद पाठयासाम् । नाभि: । आऽरेहणम् । हृदि। सम्ऽवननम् । कृतम् । गाव: । घृतस्य । मातर: । अभूम् । सम् । वनयन्तु । मे ॥९.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 9; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(यासाम्) जिन स्त्रियों की ( नाभि: ) नाभि अङ्ग (आरेहणम्) कत्थन अर्थात् प्रशंसा योग्य है, और (हृदि) हृदय में (संवननम्) वशीकरण (कृतम्) परमेश्वर ने स्थापित किया है, वे (गावः) गौओं की तरह (घृतस्य) घृत की अर्थात् स्नेहघृत१ की (मातरः) निर्मात्री हैं, (अमूम्) उस मेरी पत्नी को [गृह की अन्य देवियां] (मे ) मेरी (संवानयन्तु) भक्ति में या वशीकरण में करें।
टिप्पणी -
[आरेहणम्= रिफ कत्थनयुद्धनिन्दाहिंसादानेषु । "रिह" इत्येके (तुदादिः); कत्थन = श्लाघा (भ्वादिः), प्रशंसा । स्त्रियों की नाभि श्लाघा सम्पन्न है, यतः यह सन्तानोत्पादिका है। शिशु माता की नाभि से बन्धे उत्पन्न होते हैं। यथा "नाभ्या संनद्धाः पुत्रा जायन्ते" यह प्रसिद्ध उक्ति है। मन्त्र में गाव: पद में उपमावाचक पद विलुप्त है। अभिप्राय है "गावः इव गावः", अर्थात् गोएं जैसे नवजात वत्स के प्रति स्नेहमयी होती हैं उसी प्रकार परस्पर स्नेहमयी पारिवारिक स्त्रियां। यथा "अन्यो अन्यमभिहर्यत वत्सं जातमिवाघ्न्या" (अथर्व० ३।३०।१)। अथर्व० १४।२।५३-५८ मन्त्रों में गोधर्मों का प्रवेश वधू में वर्णित कर वधू को गोरूपता दी है, अर्थात् गृहस्थ जीवन में वधू को गोरूप में वर्णित किया है। अतः धर्म साम्यद्वारा गोपद द्वारा पारिवारिक स्त्रियों का ग्रहण भी वेदानुमोदित है। तथा मन्त्र में गावः पद द्वारा वेदवाक् अभिप्रेत है, "गौ: वाङ्नाम" (निघं० १।११) । अत: "गावः संवानयन्तु मे" का अभिप्राय है "वेदवाणियां मेरे लिये पत्नी को सम्यक् भक्तिपरायणा करें"। वन संभक्तौ (भ्वादिः) । विवाह सम्बन्धी मन्त्रों (अथर्व १४।२) में पति-पत्नी भाव सम्बद्ध हुए वर-वधू को परस्पर प्रेम में बन्धे रहने के उपदेश दिये हैं। रुष्टापत्नी उन उपदेशों को स्मरण कर पति के प्रति स्नेहभावना परायणा हो,-यह विचार भी मन्त्र में प्रकट किया है।] [१. घृतस्य= घृतोपलक्षितस्नेहघृतस्य निर्मात्र्य: गाव इव।]