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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 93/ मन्त्र 1
सूक्त - शन्ताति
देवता - यमः, मृत्युः, शर्वः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - स्वस्त्ययन सूक्त
य॒मो मृ॒त्युर॑घमा॒रो नि॑रृ॒थो ब॒भ्रुः श॒र्वोऽस्ता॒ नील॑शिखण्डः। दे॑वज॒नाः सेन॑योत्तस्थि॒वांस॒स्ते अ॒स्माकं॒ परि॑ वृञ्जन्तु वी॒रान् ॥
स्वर सहित पद पाठय॒म: । मृ॒त्यु: । अ॒घ॒ऽमा॒र: । नि॒:ऽऋ॒थ: । ब॒भ्रु: । श॒र्व: । अस्ता॑ । नील॑ऽशिखण्ड: । दे॒व॒ऽज॒ना: । सेन॑या । उ॒त्त॒स्थि॒ऽवांस॑: । ते । अ॒स्माक॑म् । परि॑। वृ॒ञ्ज॒न्तु॒ । वी॒रान्॥९३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यमो मृत्युरघमारो निरृथो बभ्रुः शर्वोऽस्ता नीलशिखण्डः। देवजनाः सेनयोत्तस्थिवांसस्ते अस्माकं परि वृञ्जन्तु वीरान् ॥
स्वर रहित पद पाठयम: । मृत्यु: । अघऽमार: । नि:ऽऋथ: । बभ्रु: । शर्व: । अस्ता । नीलऽशिखण्ड: । देवऽजना: । सेनया । उत्तस्थिऽवांस: । ते । अस्माकम् । परि। वृञ्जन्तु । वीरान्॥९३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 93; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(यमः) सेना का नियन्ता, (मृत्युः) मृत्यु दण्ड का निश्चय करने वाला (अघमारः) व्यक्ति के पाप के अनुसार मृत्यु का निर्णय देने वाला (निर्ऋथः) मृत्यु से भिन्न प्रकार के कष्ट देने वाला (बभ्रुः) भरण-पोषण करने वाला (शर्वः) तलवार द्वारा मारने वाला (अस्ता) तामसास्त्र फैंकने वाला (नीलशिखण्ड:) नीली ज्वाला देने वाला (देवजनाः) ये देवजन हैं। युद्ध में (सेनया) सेना के साथ ये देवजन भी (उत्तस्थिवांसः) उठते१ हैं, (ते) वे देवजन (अस्माकम्) हमारे (वीरान्) वीरों को (परिवृञ्जन्तु) परित्यक्त कर दें। भ्रम से कहीं उन्हें न मारें।
टिप्पणी -
[मन्त्र में मुख्य रूप में देवजनों का वर्णन है और सेना का वर्णन गोण है। देवजन सेना के भिन्न-भिन्न विभागों के अध्यक्ष हैं। युद्ध में जो शत्रु पकड़ लिये जाते हैं उन के अपराधों के अनुसार का निश्चय तो "अघमार" अधिकारी करता है, और जो निश्चित किये दण्ड को क्रियात्मक रूप देता है वह "मृत्यु" संज्ञक अधिकारी है, "बभ्रुः" है। सैनिकों को भरण-पोषण अर्थात् खान-पान की सामग्री पहुंचाने वाला अधिकारी; तलवार द्वारा युद्ध का व्यवस्थापक है "शर्वः" अधिकारी "शॄ हिंसायाम्; क्र्यादिः"; अस्ता है "तामसास्त्र" को शत्रु पर फैंकने वाला अधिकारी, असु क्षेपणे; "नीलशिखण्ड" है सूर्य की नीली शिखा, ज्वालारूपा। सौर रश्मियों का देने वाला अधिकारी "नीलां शिखां ददातीति", सुर्य की नीली रश्मियां, शत्रु दल पर फैंकने से शत्रुदल जला दिया जाता है। सूर्य की शुक्ल रश्मि सात प्रकार की रश्मियों का समूहरूप होती है। ये सप्तविध रश्मियां वर्षा-ऋतु में इन्द्रधनुष् में सप्तविध, रश्मि पट्टियों में दृष्टि गोचर होती हैं। इसी लिये सूर्य को "सप्तरश्मिः" कहते हैं 'यः सप्तरश्मिः " (अथर्व० १०।३४।१३), तथा 'एकोऽश्वो वहति सप्तनामादित्यः, सप्तास्मै रश्मयो रसान् सं नामयन्ति" (निरुक्त ४।४।२७)। सप्त रश्मि का संक्षिप्तनाम है "नीलरोहित", यथा "नीललोहितेनामूनभ्यवतनोमि" (अथर्व० ८।८।२४)। सूर्य की सप्त रश्मियों में एक ओर लोहित रश्मि होती है, दूसरी ओर violet, और इन दोनों के मध्य में शेष ५ रश्मियां। तामसास्त्र यथा– असौ या सेना मरुतः परेषामस्मानभ्येत्योज सा स्पर्धमाना। तां विध्यत तमसापव्रतेन यथैषामन्यो अन्यं न जानात्"॥ (अथर्व० ३॥२।६) यह तामसास्त्र शत्रु सेना पर फैंका जाता है ताकि शत्रु सेना अन्धकाराविष्ट हो कर मिथ: हुनन करती रहे। स्वकीय सेना भी इसी अन्धकार में शत्रु सेना के साथ युद्ध कर रही है। अतः हमारे सेनाधिकारी भ्रमवश कहीं निज सैनिकों का भी वध न कर दें, इस लिये "अस्माकं परि वृजन्तु वीरान" द्वारा उन्हें सचेत किया गया है। मन्त्र में "मरुतः" हैं मारने में सिद्धहस्त सैनिक (यजु० १७।४०)]। [१. उत्त्थान' पारिभाषिक शब्द है। यथा "war, battle" (आप्टे)।]