अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 109/ मन्त्र 3
सूक्त - बादरायणिः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - राष्ट्रभृत सूक्त
अ॑प्स॒रसः॑ सध॒मादं॑ मदन्ति हवि॒र्धान॑मन्त॒रा सूर्यं॑ च। ता मे॒ हस्तौ॒ सं सृ॑जन्तु घृ॒तेन॑ स॒पत्नं॑ मे कित॒वं र॑न्धयन्तु ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒प्स॒रस॑: । स॒ध॒ऽमाद॑म् । म॒द॒न्ति॒ । ह॒वि॒:ऽधान॑म्। अ॒न्त॒रा । सूर्य॑म् । च॒ । ता: । मे॒ । हस्तौ॑ । सम् । सृ॒ज॒न्तु॒ । घृ॒तेन॑ । स॒ऽपत्न॑म् । मे॒ । कि॒त॒वम् । र॒न्ध॒य॒न्तु॒ ॥११४.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अप्सरसः सधमादं मदन्ति हविर्धानमन्तरा सूर्यं च। ता मे हस्तौ सं सृजन्तु घृतेन सपत्नं मे कितवं रन्धयन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठअप्सरस: । सधऽमादम् । मदन्ति । हवि:ऽधानम्। अन्तरा । सूर्यम् । च । ता: । मे । हस्तौ । सम् । सृजन्तु । घृतेन । सऽपत्नम् । मे । कितवम् । रन्धयन्तु ॥११४.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 109; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(हविर्धानम्) हवियों के निधान भूलोक (च) और (सूर्यम्) सूर्य के (अन्तरा) अन्तराल में (अप्सरस:) अप्सराएं [मन्त्र २] (सधमादम्, मदन्ति) पारस्परिक मोद में प्रमुदित होती हैं। (ताः) वे अप्सराएं (मे) मुझ [अग्नि (मन्त्र २)] अग्रणी के (हस्तौ) दोनों हाथों को (घृतेन) घृत आदि द्वारा (संसृजन्तु) संयुक्त करें, और (कितवम्) कितव जोकि (मे) मुझ अग्रणी का (सपत्नम्) शत्रु है उसे (रन्धयन्तु) हिसित करें, या मेरे वश में करें ।
टिप्पणी -
[अप्सराएं हैं तो प्राकृतिक शक्तियां, जिन्हें कि घृताहुतीयों द्वारा रोगरहित कर पुष्ट किया है (मन्त्र २)। ये अन्तरिक्ष में विचरती हैं, अर्थात् भूलोक और सूर्य के अन्तराल में ये पुष्ट होकर, वर्षाप्रदान द्वारा मुझ प्रधानमन्त्री के दोनों हाथों को प्रभूत घृत आदि पदार्थों से भर देती हैं। मानो राष्ट्र को भर देती है। इससे कितवों को मैं अपने वश में कर लेता हूं, यह वशीकरण उनके कितवपन की हिंसा भी कर देता है। राष्ट्र में प्रभूत सामग्री के कारण द्यूत द्वारा अन्य धन की प्राप्ति की अभिलाषा नहीं रहती, द्यूत में तो लाभ और हानि दोनों की सम्भावना रहती है। रन्धयन्तु= रध हिंसासंराध्योः (दिवादिः) तथा रध्यतिर्वशगमने (निरुक्त १०।४०)]।