अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 109/ मन्त्र 1
सूक्त - बादरायणिः
देवता - अग्निः
छन्दः - विराट्पुरस्ताद्बृहती
सूक्तम् - राष्ट्रभृत सूक्त
इ॒दमु॒ग्राय॑ ब॒भ्रवे॒ नमो॒ यो अ॒क्षेषु॑ तनूव॒शी। घृ॒तेन॒ कलिं॑ शिक्षामि॒ स नो॑ मृडाती॒दृशे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । उ॒ग्राय॑ । ब॒भ्रवे॑ । नम॑: । य: । अ॒क्षेषु॑ । त॒नू॒ऽव॒शी । घृ॒तेन॑ । कलि॑म् । शि॒क्षा॒मि॒ । स: । न॒: । मृ॒डा॒ति॒ । ई॒दृशे॑ ॥११४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इदमुग्राय बभ्रवे नमो यो अक्षेषु तनूवशी। घृतेन कलिं शिक्षामि स नो मृडातीदृशे ॥
स्वर रहित पद पाठइदम् । उग्राय । बभ्रवे । नम: । य: । अक्षेषु । तनूऽवशी । घृतेन । कलिम् । शिक्षामि । स: । न: । मृडाति । ईदृशे ॥११४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 109; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(उग्राय) न्याय करने में कठोर, (बभ्रवे) भरण-पोषण करने वाले परमेश्वर के लिये (इदम् नमः) यह हमारा नमस्कार हो, (यः) जो (अक्षेषु [सत्सु]) इन्द्रियों के होते हुए (तनूवशी) शरीरों को वश में [करने की शक्ति प्रदान] करता है। (कलिम्) कलिकाल में, कलियुग में (घृतेन) घृतादि पदार्थों के साथ [प्रजाजन को] (शिक्षामि) मैं शिक्षा प्रदान करता हूं, (सः) वह परमेश्वर (ईदृशे) ऐसे कर्म में (नः) हमें (मृडाति) सुखी करे।
टिप्पणी -
[अक्षेषु= अक्षम्= an organ of sense (आप्टे)= इन्द्रियां। शरीर में इन्द्रियां तो अश्व हैं, जो कि शरीर-रथ को विषयों की ओर ले जाती हैं, तब भी परमेश्वराराधना द्वारा परमेश्वर शक्ति प्रदान करता है जिस से हम तनुओं को वश में करते हैं, इन्हें विषयों में नहीं जाने देते। शिक्षामि= यह प्रधानमन्त्री की उक्ति है जोकि राष्ट्रकर्मों में अग्रणी है (मन्त्र २)। कलिकाल में शिक्षा की अत्यावश्यकता है, ताकि कलिकाल में प्रजाजन कलि के प्रभाव से बचे रहें। कलिकाल में प्रजा स्वार्थप्रधान हो जाती है, अतः प्रधानमन्त्री दुष्प्राप्य घृतादि पदार्थों द्वारा भी प्रजा की सेवा करता है।]