Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 115/ मन्त्र 1
सूक्त - अथर्वाङ्गिराः
देवता - सविता, जातवेदाः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - पापलक्षणनाशन सूक्त
प्र प॑ते॒तः पा॑पि लक्ष्मि॒ नश्ये॒तः प्रामुतः॑ पत। अ॑य॒स्मये॑ना॒ङ्केन॑ द्विष॒ते त्वा स॑जामसि ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । प॒त॒ । इ॒त: । पा॒पि॒ । ल॒क्ष्मि॒ । नश्य॑ । इ॒त: । प्र । अ॒मुत॑: । प॒त॒ । अ॒य॒स्मये॑न । अ॒ङ्केन॑ । द्वि॒ष॒ते । त्वा॒ । आ । स॒जा॒म॒सि॒ ॥१२०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र पतेतः पापि लक्ष्मि नश्येतः प्रामुतः पत। अयस्मयेनाङ्केन द्विषते त्वा सजामसि ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । पत । इत: । पापि । लक्ष्मि । नश्य । इत: । प्र । अमुत: । पत । अयस्मयेन । अङ्केन । द्विषते । त्वा । आ । सजामसि ॥१२०.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 115; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(पापि लक्ष्मि) हे पापरूपिणी लक्ष्मी ! (इतः) यहां से (पपत) तू उड़ जा (इतः) यहां से (नश्य) अदृष्ट हो जा, (अमृतः) उस दूर देश से भी (प्रपत) चली जा। (द्विषते) जैसे द्विष्ट-शत्रु के पराजय के लिये, (अयस्मयेन अङ्केन) अंकित कर देने वाले लोह निर्मित शल्य द्वारा [उसके शरीर को अंकित कर दिया जाता है, वैसे] हे पापरूपिणी लक्ष्मी ! (त्वा) तुझे (सजामसि) हम शल्य द्वारा सम्बद्ध कर देते हैं। [ताकि तेरा विनाश हो जाय]।
टिप्पणी -
[दो प्रकार से लक्ष्मी का उपार्जन होता है, सुपथ द्वारा तथा दुष्पथ द्वारा। दुष्पथ द्वारा उपार्जित लक्ष्मी पापरूपिणी है। इसका परित्याग करना चाहिये। वेद में सुपथ द्वारा लक्ष्मी के उपार्जन का निर्देश किया है। यथा- "अग्ने नय सुपथा रायेऽअस्मान" (यजु० ४०।१६)]।