अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 70/ मन्त्र 1
यत्किं चा॒सौ मन॑सा॒ यच्च॑ वा॒चा य॒ज्ञैर्जु॒होति॑ ह॒विषा॒ यजु॑षा। तन्मृ॒त्युना॒ निरृ॑तिः संविदा॒ना पु॒रा स॒त्यादाहु॑तिं हन्त्वस्य ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । किम् । च॒ । अ॒सौ । मन॑सा । यत् । च॒ । वा॒चा । रा॒ज्ञै: । जु॒होति॑ । ह॒विषा॑ । यजु॑षा । तत् । मृ॒त्युना॑ । नि:ऽऋ॑ति: । स॒म्ऽवि॒दा॒ना । पु॒रा । स॒त्यात् । आऽहु॑तिम् । ह॒न्तु॒ । अ॒स्य॒ ॥७३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्किं चासौ मनसा यच्च वाचा यज्ञैर्जुहोति हविषा यजुषा। तन्मृत्युना निरृतिः संविदाना पुरा सत्यादाहुतिं हन्त्वस्य ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । किम् । च । असौ । मनसा । यत् । च । वाचा । राज्ञै: । जुहोति । हविषा । यजुषा । तत् । मृत्युना । नि:ऽऋति: । सम्ऽविदाना । पुरा । सत्यात् । आऽहुतिम् । हन्तु । अस्य ॥७३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 70; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(असौ) वह [परराष्ट्ररूपी शत्रु ] (यत् किं च) जो कुछ (मनसा) मन द्वारा, (यत् च) और जो (वाचा) वाणी द्वारा, (यज्ञैः) और हमारी सेना के साथ संग्राम करने वाले, भिड़ने वाले सेनाओं के प्रेरकों द्वारा, (हविषा) सैनिकरूपी हवि द्वारा, (यजुषा) तथा यजुर्वेदोक्त अन्य साधनों या विधियों द्वारा (जुहोति) युद्ध-यज्ञ में आहुतियां देता है, (अस्य) इस पर राष्ट्ररूपी शत्रु के (तत्) उस कर्म को (आहुतिम्) अर्थात् युद्ध-यज्ञ में दी जाने वाली आहुति को (सत्यात् पुरा) इन के सद्रूप होने से पहिले ही (मृत्युना) मृत्यु के साथ (संविदाना) ऐकमत्य को प्राप्त (निऋतिः) कृच्छ्रापत्ति (हन्तु) इन्हें नष्ट कर दे।
टिप्पणी -
[मनसा= युद्ध के लिये मानसिक विचार। वाचा= युद्ध के लिये वाचिक घोषणा ! (यज्ञैः) (यजु० १७।४०) में "यज्ञः-सोम" द्वारा यज्ञ को सोम अर्थात् युद्धाधिकारी कहा है, जो कि सेना के आगे-आगे चलता हुआ सेना का प्रेरक होता है, सोमः (षू प्रेरणे१)। "यज्ञैः" में बहुवचन द्वारा युद्ध में नाना सैनिकदलों को सूचित किया है, और प्रत्येक दल के अधिकारी को "यज्ञः सोमः" कहा है। युद्ध होने से पूर्व शत्रुराष्ट्र को कृच्छापत्तियों द्वारा घेर लेना चाहिये, और इसी घेरे द्वारा सम्भावित उनकी मृत्यु कर देनी चाहिये, ताकि शत्रु युद्ध करने ही न पाए]। [१. यथा “इन्द्र भासां नेता, बृहस्पतिः दक्षिणा, यज्ञः पुरऽएतु सोमः" (यजु० १७।४०)]