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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 90/ मन्त्र 1
सूक्त - अङ्गिराः
देवता - मन्त्रोक्ताः
छन्दः - गायत्री
सूक्तम् - शत्रुबलनाशन सूक्त
अपि॑ वृश्च पुराण॒वद्व्र॒तते॑रिव गुष्पि॒तम्। ओजो॑ दा॒स्यस्य॑ दम्भय ॥
स्वर सहित पद पाठअपि॑ । वृ॒श्च॒ । पु॒रा॒ण॒ऽवत् । व्र॒तते॑:ऽइव । गु॒ष्पि॒तम् । ओज॑: । दा॒सस्य॑ । द॒म्भ॒य॒ ॥९५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अपि वृश्च पुराणवद्व्रततेरिव गुष्पितम्। ओजो दास्यस्य दम्भय ॥
स्वर रहित पद पाठअपि । वृश्च । पुराणऽवत् । व्रतते:ऽइव । गुष्पितम् । ओज: । दासस्य । दम्भय ॥९५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 90; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(इव) जैसे (व्रततेः) लता के (गुष्पितम्) गुच्छे को काटा जाता है उस प्रकार (पुराणवत्) प्राचीन विधि के अनुसार [दासस्य] उपक्षयकारी [व्यभिचारी पुरुष के अण्डकोष या लिङ्ग] को (अपि वृश्च) काट दे। और (दासस्य) उपक्षयकारी के (ओजः) वीर्यजन्य ओज को (दम्भय) विनष्ट कर दे।
टिप्पणी -
[व्यभिचारी के लिङ्ग के “अपि नह्याम्यस्य मेढ्रम्" द्वारा लिङ्ग-बन्धन का भी वर्णन हुआ है (७।९९।३)। जम्भय; जम्भयतिर्वधकर्मा इति यास्कः; तथा (निघं० २।१९; सायण)। वेदानुसार व्यभिचारी को ऐसा दण्ड पुराण-विधि है। ओजः= बलं प्रजननसमर्थ वीर्य वा जम्भय विनाशय (सायण)]