Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 90/ मन्त्र 2
सूक्त - अङ्गिराः
देवता - मन्त्रोक्ताः
छन्दः - विराट्पुरस्ताद्बृहती
सूक्तम् - शत्रुबलनाशन सूक्त
व॒यं तद॑स्य॒ सम्भृ॑तं॒ वस्विन्द्रे॑ण॒ वि भ॑जामहै। म्ला॒पया॑मि भ्र॒जः शि॒भ्रं वरु॑णस्य व्र॒तेन॑ ते ॥
स्वर सहित पद पाठव॒यम् । तत् । अ॒स्य॒ । सम्ऽभृ॑तम् । वसु॑ । इन्द्रे॑ण । वि । भ॒जा॒म॒है॒ । म्ला॒पया॑मि । भ्र॒ज: । शि॒भ्रम् । वरु॑णस्य । व्र॒तेन॑ । ते॒ ॥९५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
वयं तदस्य सम्भृतं वस्विन्द्रेण वि भजामहै। म्लापयामि भ्रजः शिभ्रं वरुणस्य व्रतेन ते ॥
स्वर रहित पद पाठवयम् । तत् । अस्य । सम्ऽभृतम् । वसु । इन्द्रेण । वि । भजामहै । म्लापयामि । भ्रज: । शिभ्रम् । वरुणस्य । व्रतेन । ते ॥९५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 90; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(अस्य) इस व्यभिचारी के (तत्) उस (सम्भृतम्) एकत्रित किये (वसु) धन को (इन्द्रेण) सम्राट की आज्ञानुसार (वयम्) हम (विभजामहै) विभक्त कर लेते हैं। (ते) हे व्यभिचारिन् ! तेरे (शिभ्रम्= शुभ्रम्) शुक्ल, (भ्रजः) दीप्त वीर्य को (वरुणस्य) राष्ट्रपति के (व्रतेन) नियमानुसार (म्लापयामि) हर्षक्षयकारी कर देता हूं।
टिप्पणी -
["इन्द्रेण, वरुणस्य" – "इन्द्रश्च सम्राद् वरुणश्च राजा" (यजु० ८।३७)। इन्द्र है साम्राज्याधिपति१ और वरुण है साम्राज्य के अङ्गभूत राष्ट्र का अधिपति। "लिङ्गच्छेद तथा धन का विभाग" सम्राट् तथा जिस राष्ट्र का निवासी वह व्यभिचारी है उस राष्ट्र के अधिपति- इन दोनों के निर्णय के अनुसार होना चाहिये। म्लापयामसि= म्लै हर्षक्षये (भ्वादिः)। वीर्य और लिङ्ग के अभाव में भोगजन्य हर्ष प्राप्त नहीं हो सकता]।[१. साम्राज्य है “संयुक्त राज्य", जिस में कई राष्ट्र स्वेच्छापूर्वक संमिलित होते हैं। राष्ट्राधिपति को "वरुण" कहते हैं, जो कि निज राष्ट्र की प्रजा द्वारा निर्वाचित होता है। व्रियते इति वरुणः।]