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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 7/ मन्त्र 44
    सूक्त - अथर्वा, क्षुद्रः देवता - स्कन्धः, आत्मा छन्दः - एकावसाना पञ्चपदा निचृत्पदपङ्क्तिर्द्विपदार्च्यनुष्टुप् सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त

    इ॒मे म॒यूखा॒ उप॑ तस्तभु॒र्दिवं॒ सामा॑नि चक्रु॒स्तस॑राणि॒ वात॑वे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मे । म॒यूखा॑: । उप॑ । त॒स्त॒भु॒: । दिव॑म् । सामा॑नि । च॒क्रु॒: । तस॑राणि । वात॑वे ॥ ७.४४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमे मयूखा उप तस्तभुर्दिवं सामानि चक्रुस्तसराणि वातवे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमे । मयूखा: । उप । तस्तभु: । दिवम् । सामानि । चक्रु: । तसराणि । वातवे ॥ ७.४४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 44

    मन्त्रार्थ -
    (इमे मयूखाः-दिवम्-उपतस्तभुः ) ये मयूख-रश्मियाँ "मयूखाः-रश्मयः” निघ० १।५) जैसे द्युलोक को ऊपर उठाए हुये हैं ऐसे 'रस, रक्त, मांस, स्नाव, हड्डी, मज्जा' मयूख भी शरीर को सम्हाल रही है (वातवे तसराणि सामानि चक्रुः) संसार और शरीर को चुनने-तानने को सूक्ष्मरूप तन्तुतत्त्वत्र को समभाव से करते हैं - यथावत् करते हैं ॥ ४४ ॥

    विशेष - ऋषिः—अथर्वा ( स्थिर-योगयुक्त ) देवनाः - स्कम्भः, आत्मा वा ( स्कम्भ-विश्व का खम्भा या स्कम्मरूप आत्मा-चेतन तत्त्व-परमात्मा )

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