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  • यजुर्वेद - अध्याय 31/ मन्त्र 22
    ऋषिः - उत्तरनारायण ऋषिः देवता - आदित्यो देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    श्रीश्च॑ ते ल॒क्ष्मीश्च॒ पत्न्या॑वहोरा॒त्रे पा॒र्श्वे नक्ष॑त्राणि रू॒पम॒श्विनौ॒ व्यात्त॑म्।इ॒ष्णन्नि॑षाणा॒मुं म॑ऽइषाण सर्वलो॒कं म॑ऽइषाण॥२२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श्रीः। च॒। ते॒। ल॒क्ष्मीः। च॒। पत्न्यौ॑। अ॒हो॒रा॒त्रेऽइत्य॑होरात्रे। पार्श्वेऽइति॑ पा॒र्श्वे। नक्ष॑त्राणि। रू॒पम्। अ॒श्विनौ॑। व्यात्त॒मिति॑ वि॒ऽआत्त॑म्। इष्णन् ॥ इषा॒ण॒। अ॒मुम्। मे॒। इ॒षा॒ण॒। स॒र्वलो॒कमिति॑ सर्वऽलो॒कम्। मे॒। इ॒षा॒ण॒ ॥२२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यावहोरात्रे पार्श्वे नक्षत्राणि रूपमश्विनौ व्यात्ताम् । इष्णन्निषाणामुम्मऽइषाण सर्वलोकम्म इषाण ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    श्रीः। च। ते। लक्ष्मीः। च। पत्न्यौ। अहोरात्रेऽइत्यहोरात्रे। पार्श्वेऽइति पार्श्वे। नक्षत्राणि। रूपम्। अश्विनौ। व्यात्तमिति विऽआत्तम्। इष्णन्॥ इषाण। अमुम्। मे। इषाण। सर्वलोकमिति सर्वऽलोकम्। मे। इषाण॥२२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 31; मन्त्र » 22
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    मन्त्रार्थ -
    (ते श्रीः-लक्ष्मीः च पत्न्यौ) हे वेदस्वामी परमात्मन्! तेरी ज्ञानमयी शोभा और क्रियामयी कला ये दोनों मेरे पूर्व पश्चिम में सहाङ्गिनी रक्षा करने वाली हो जावें (अहोरात्रे पार्श्वे) दिन और रात्रि ये दोनों पार्श्व भाग-पावों में स्वाधीन होजावें (नक्षत्राणि रूपम्) चमचमाने वाले तारे-तारों भरा गगन रूप कान्तिप्रद बन जावे (अश्विनौ व्यात्तम्) सूर्य चन्द्रमा मेरा खुला मुख-दोनों जबडे बन जावें (इष्णन्-इषाण) हे मेरा कल्याण चाहते हुए परमात्मन् ! तू मेरे लिये इस पृथिवी का कल्याण प्राप्त करा (अमृतं मे- इषाण) मेरे लिये द्यलोक का कल्याण प्राप्त करा (सर्वलोक मे- इषारा) सब लोकों का मेरे लिये कल्याण प्राप्त करा ॥२२॥

    विशेष - (ऋग्वेद मं० १० सूक्त ६०) ऋषि:- नारायणः १ - १६ । उत्तरनारायणः १७ – २२ (नारा:आपः जल है आप: नर जिसके सूनु है- सन्तान हैं, ऐसे वे मानव उत्पत्ति के हेतु-भूत, अयन-ज्ञान का आश्रय है जिसका बह ऐसा जीवजन्मविद्या का ज वाला तथा जनकरूप परमात्मा का मानने वाला आस्तिक महाविद्वान् ) देवता - पुरुष: १, ३, ४, ६, ८–१६। ईशानः २। स्रष्टा ५। स्रष्टेश्वरः ७। आदित्यः १७-१९, २२। सूर्य २०। विश्वे देवाः २१। (पुरुष- समष्टि में पूर्ण परमात्मा)

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