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  • यजुर्वेद - अध्याय 31/ मन्त्र 4
    ऋषिः - नारायण ऋषिः देवता - पुरुषो देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    त्रि॒पादू॒र्ध्व उदै॒त्पुरु॑षः॒ पादो॑ऽस्ये॒हाभ॑व॒त् पुनः॑।ततो॒ विष्व॒ङ् व्यक्रामत्साशनानश॒नेऽअ॒भि॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्रि॒पादिति॑ त्रि॒ऽपात्। ऊ॒र्ध्वः। उत्। ऐ॒त्। पुरु॑षः। पादः॑। अ॒स्य॒। इ॒ह। अभ॒व॒त्। पुन॒रिति॒ पुनः॑ ॥ ततः। विष्व॑ङ्। वि। अ॒क्रा॒म॒त्। सा॒श॒ना॒न॒श॒नेऽइति॑ साशनानश॒ने। अ॒भि ॥४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्रिपादूर्ध्वऽउऐत्पुरुषः पादो स्येहाभवत्पुनः । ततो विष्वङ्व्यक्रामत्साशनानशनेऽअभि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    त्रिपादिति त्रिऽपात्। ऊर्ध्वः। उत्। ऐत्। पुरुषः। पादः। अस्य। इह। अभवत्। पुनरिति पुनः॥ ततः। विष्वङ्। वि। अक्रामत्। साशनानशनेऽइति साशनानशने। अभि॥४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 31; मन्त्र » 4
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    मन्त्रार्थ -
    (त्रिपात् पुरुषः) पूर्वोक्त तीन पादों वाला पुरुष पूर्ण परमात्मा (ऊर्ध्वः-उदैत्) नश्वर संसार से ऊपर उठा हुआ है- अमृतस्वरूप मोक्षरूप है (अस्य पादः-इह-पुनः-अभवत् ) इसका जो एक पाद जगद्रूप है वह पुनः पुनः होता है - सृष्टि संहाररूपचक्र में रहता है (ततः) पश्चात् (साशनानशने अभि) सभोग जीवात्माओं, अभोग-प्रकृति के प्रति (विश्वङ व्यक्रामत्) उत्पादकत्व धारकत्व नियन्तृत्व कर्मफलदातृत्व आदि विविध शक्तियों से सुगमतया या अनायास प्राप्त होने वाला परमात्मा विक्रमवान् हुआ ॥४॥

    विशेष - (ऋग्वेद मं० १० सूक्त ६०) ऋषि:- नारायणः १ - १६ । उत्तरनारायणः १७ – २२ (नारा:आपः जल है आप: नर जिसके सूनु है- सन्तान हैं, ऐसे वे मानव उत्पत्ति के हेतु-भूत, अयन-ज्ञान का आश्रय है जिसका बह ऐसा जीवजन्मविद्या का ज वाला तथा जनकरूप परमात्मा का मानने वाला आस्तिक महाविद्वान् ) देवता - पुरुष: १, ३, ४, ६, ८–१६। ईशानः २। स्रष्टा ५। स्रष्टेश्वरः ७। आदित्यः १७-१९, २२। सूर्य २०। विश्वे देवाः २१। (पुरुष- समष्टि में पूर्ण परमात्मा)

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