यजुर्वेद - अध्याय 31/ मन्त्र 4
ऋषिः - नारायण ऋषिः
देवता - पुरुषो देवता
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
327
त्रि॒पादू॒र्ध्व उदै॒त्पुरु॑षः॒ पादो॑ऽस्ये॒हाभ॑व॒त् पुनः॑।ततो॒ विष्व॒ङ् व्यक्रामत्साशनानश॒नेऽअ॒भि॥४॥
स्वर सहित पद पाठत्रि॒पादिति॑ त्रि॒ऽपात्। ऊ॒र्ध्वः। उत्। ऐ॒त्। पुरु॑षः। पादः॑। अ॒स्य॒। इ॒ह। अभ॒व॒त्। पुन॒रिति॒ पुनः॑ ॥ ततः। विष्व॑ङ्। वि। अ॒क्रा॒म॒त्। सा॒श॒ना॒न॒श॒नेऽइति॑ साशनानश॒ने। अ॒भि ॥४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रिपादूर्ध्वऽउऐत्पुरुषः पादो स्येहाभवत्पुनः । ततो विष्वङ्व्यक्रामत्साशनानशनेऽअभि ॥
स्वर रहित पद पाठ
त्रिपादिति त्रिऽपात्। ऊर्ध्वः। उत्। ऐत्। पुरुषः। पादः। अस्य। इह। अभवत्। पुनरिति पुनः॥ ततः। विष्वङ्। वि। अक्रामत्। साशनानशनेऽइति साशनानशने। अभि॥४॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
पूर्वोक्तस्त्रिपात्पुरुष ऊर्ध्व उदैत्। अस्य पाद इह पुनरभवत्। ततः साशनानशने अभि विष्वङ् सन् व्यक्रामत्॥४॥
पदार्थः
(त्रिपात्) त्रयः पादा अंशा यस्य सः (ऊर्ध्वः) सर्वेभ्य उत्कृष्टः संसारात् पृथक् मुक्तिरूपः (उत्) (ऐत्) उदेति (पुरुषः) पालकः (पादः) एको भागः (अस्य) (इह) जगति (अभवत्) भवति (पुनः) पुनः पुनः (ततः) ततोऽनन्तरम् (विष्वङ्) यो विषु सर्वत्राञ्चति प्राप्नोति (वि) विशेषेण (अक्रामत्) व्याप्नोति (साशनानशने) अशनेन भोजनेन सह वर्त्तमानं साशनं न विद्यतेऽशनं यस्य तदनशनं साशनञ्चानशनञ्च ते प्राण्यप्राणिनौ (अभि) अभिलक्ष्य॥४॥
भावार्थः
अयं परमेश्वरः कार्यजगतः पृथगंशत्रयेण प्रकाशितः सन् एकांशस्वसामर्थ्येन सर्वं जगत्पुनः पुनरुत्पादयति पश्चात् तस्मिन् चराऽचरे जगति व्याप्य तिष्ठति॥४॥
हिन्दी (5)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
पूर्वोक्त (त्रिपात्) तीन अंशों वाला (पुरुषः) पालक परमेश्वर (ऊर्ध्वः) सब से उत्तम मुक्तिस्वरूप संसार से पृथक् (उत् , ऐत्) उदय को प्राप्त होता है। (अस्य) इस पुरुष का (पादः) एक भाग (इह) इस जगत् में (पुनः) वार-वार उत्पत्ति-प्रलय के चक्र से (अभवत्) होता है (ततः) इसके अनन्तर (साशनानशने) खाने वाले चेतन और न खाने वाले जड़ इन दोनों के (अभि) प्रति (विष्वङ्) सर्वत्र प्राप्त होता हुआ (वि, अक्रामत्) विशेष कर व्याप्त होता है॥४॥
भावार्थ
यह पूर्वोक्त परमेश्वर कार्य जगत् से पृथक् तीन अंश से प्रकाशित हुआ एक अंश अपने सामर्थ्य से सब जगत् को वार-वार उत्पन्न करता है, पीछे उस चराचर जगत् में व्याप्त होकर स्थित है॥४॥
पदार्थ
पदार्थ = पूर्व उक्त ( त्रिपात् पुरुष: ) = तीन अंशोंवाला पुरुष ( ऊर्ध्व: ) = सबसे उत्तम संसार से पृथक् सदा मुक्त स्वरूप ( उत् ऐत् ) = उदाय को प्राप्त हो रहा है । ( अस्य ) = इस पुरुष का ( पादः ) = एक भाग ( इह ) = इस जगत् में ( पुन: ) = बारम्बार उत्पत्ति प्रलय के चक्र में ( अभवत् ) = प्राप्त होता है । ( ततः ) = इसके अनन्तर ( साशनानशने अभि ) = खानेवाले चेतन और न खानेवाले जड़ इन दोनों प्रकार के चराचर लोकों के प्रति ( विष्वङ् ) = सब प्रकार से व्याप्त होकर ( विअक्रामत् ) = विशेष कर उनको उत्पन्न करता है।
भावार्थ
भावार्थ = परमात्मा कार्य जगत् से पृथक्, तीन अंशों से प्रकाशित हुआ, एक अंश अपने सामर्थ्य से सब जगत् को बार-बार उत्पन्न करता है,पश्चात् उस चराचर जगत् में व्याप्त होकर स्थित है। इन मन्त्रों में परमात्मा के जो चार पाद वर्णन किये हैं, यह एक उपदेश करने का ढंग है । उस निराकार प्रभु के वास्तव में न कोई हस्त है न पाद। पुन: इस कथन का कि, वही प्रभु एक अंश से जगत् को उत्पन्न करता है, तीन अंशों में पृथक् रहता है, भाव यह है कि सारे जगत् से प्रभु बहुत बड़ा है, जगत् बहुत ही अल्प है। अनन्त ब्रह्माण्डों को रचता हुआ भी इन से पृथक् है और बहुत बड़ा है ।
विषय
विराट् की उत्पत्ति ।
भावार्थ
( त्रिपात् पुरुषः) तीन अंशों वाला पुरुष ( उर्ध्वं उद् ऐव ) सबसे ऊंचा, संसार में पृथक शुद्ध, बुद्ध, मुक्त रूप होकर रहता है और (अस्य पादः) उसका एक अंश पुन: बार-बार ( इह अभवत् ) इस संसार में व्यक्त रूप में विद्यमान रहता है । (ततः) उस एक अंश से ही वह परमेश्वर (साशनानशने अभि) खाने वाले चेतन और न खाने वाले जड़, दोनों चराचरों को ( विश्वङ) सब प्रकार से व्याप्त होकर (वि- अक्रामत् ) विविध प्रकारों से उनको उत्पन्न करता है । 'उदैत्' - 'देदीप्यमानस्तिष्ठति' इति उवटः । सूर्य के समान स्वयं उज्ज्वल होकर सबको प्रकाशित करता हुआ विराजता है । 'साशनानशने' – साशनमशनादिव्यवहारोपेतम् । प्राणिजातम् । अनशनं तद्रहितमचेतनं गिरिनद्या दिकम् । इति सायणमहीधर- दयानन्दाः । साशनम स्वर्गः अनशनम् मोक्ष इति उवट: ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पुरुषः । अनुष्टुप् । गान्धारः ॥
विषय
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पदार्थ
१. (त्रिपात् पुरुषः) = यह तीन पादोंवाला पुरुष (ऊर्ध्वः उदैत्) = इस विविध हलचलवाले अशान्त संसार से ऊपर उठा हुआ है। यह सारे दृश्यमान ब्रह्माण्ड की हलचल उसके इस एक पाद में ही है। (अस्य) = इस प्रभु का (पादः) = एक पाद ही (पुनः) = तो (इह) = इस ब्रह्माण्ड में (अभवत्) = है। यह त्रिपात् और एकपात् का विचार कोई गणित के अंकों में नहीं गिनना । यह प्रभु की अनन्तता के प्रतिपादन के लिए कहने की एक शैलीमात्र है । २. यह सारा संसार दो भागों में बँटा हुआ है। इसमें कुछ 'साशन' है, अशनसहित है, खाता है और कुछ न खानेवाला है। इन्हीं को क्रमशः 'चराचर', जंगम-स्थावर' व 'चेतन - जड़' [जड़-चेतन ] कहने की परिपाटी है। (साशनानशने) = इस चराचर संसार में (विष्वङ) = [वि सु अञ्च] विविध दिशाओं व योनियों में उत्तमता से गति करनेवाला वह प्रत्येक पदार्थ (ततः) = उस संचालक त्रिपात् प्रभु से ही (व्यक्रामत्) = गति कर रहा है। सारी गति का स्रोत, प्रथम गति देनेवाले Prime mover, वे प्रभु ही हैं। उस प्रभु के अनुशासन में नदियाँ बह रही हैं। सूर्य, चन्द्र, तारे-ये सब उसी से अपने-अपने चक्र में घुमाये जा रहे हैं। जीव भी उसी की व्यवस्था से विविध योनियों को ग्रहण कर रहे हैं। ३. (अभि) = ये सब जीव उसी की शक्ति से गति कर रहे हैं और उसी की ओर जा रहे हैं। ठीक मार्ग पर जानेवाले तो उसकी ओर जा ही रहे हैं, गलत मार्ग पर जानेवाले भी भटक भटकाकर, ठोकरें खाकर फिर प्रभु की ओर ही जाते हैं। दुःख पड़ने पर प्रभु का स्मरण हो ही जाता है। एवं, ('सा काष्ठा सा परागतिः') = वे प्रभु ही सब जीवों की अन्तिम शरण हैं।
भावार्थ
भावार्थ - सारा चराचर संसार ब्रह्म की ओर जा रहा है, वे ब्रह्म ही गति के स्रोत हैं।
मन्त्रार्थ
(त्रिपात् पुरुषः) पूर्वोक्त तीन पादों वाला पुरुष पूर्ण परमात्मा (ऊर्ध्वः-उदैत्) नश्वर संसार से ऊपर उठा हुआ है- अमृतस्वरूप मोक्षरूप है (अस्य पादः-इह-पुनः-अभवत् ) इसका जो एक पाद जगद्रूप है वह पुनः पुनः होता है - सृष्टि संहाररूपचक्र में रहता है (ततः) पश्चात् (साशनानशने अभि) सभोग जीवात्माओं, अभोग-प्रकृति के प्रति (विश्वङ व्यक्रामत्) उत्पादकत्व धारकत्व नियन्तृत्व कर्मफलदातृत्व आदि विविध शक्तियों से सुगमतया या अनायास प्राप्त होने वाला परमात्मा विक्रमवान् हुआ ॥४॥
टिप्पणी
"देवमनुष्यतिर्यगादिरूपेण विविधः सन् व्यक्रामत् व्याप्तवान्” ( सायणः ) एषोऽन्यथार्थस्तत्स्वभावविरुद्धत्वात् कं च व्याप्तवानिति प्रश्नप्रसङ्गः ।
विशेष
(ऋग्वेद मं० १० सूक्त ६०) ऋषि:- नारायणः १ - १६ । उत्तरनारायणः १७ – २२ (नारा:आपः जल है आप: नर जिसके सूनु है- सन्तान हैं, ऐसे वे मानव उत्पत्ति के हेतु-भूत, अयन-ज्ञान का आश्रय है जिसका बह ऐसा जीवजन्मविद्या का ज वाला तथा जनकरूप परमात्मा का मानने वाला आस्तिक महाविद्वान् ) देवता - पुरुष: १, ३, ४, ६, ८–१६। ईशानः २। स्रष्टा ५। स्रष्टेश्वरः ७। आदित्यः १७-१९, २२। सूर्य २०। विश्वे देवाः २१। (पुरुष- समष्टि में पूर्ण परमात्मा)
मराठी (2)
भावार्थ
वरीलप्रमाणे कार्य जगतापासून पृथक तीन अंश असणारा परमेश्वर या एक अंश जगाला आपल्या सामर्थ्यांने वारंवार उत्पन्न करतो व नंतरही त्या चराचर जगात व्याप्त होऊन राहतो.
विषय
पुनश्च, त्याच विषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - तो पूर्ववर्णित (मागील मंत्रात वर्णित) (त्रिपात्) तीन अंशवान (पुरूषः) पालक परमेश्वर (ऊर्ध्वः) सर्वांच्यापेक्षा उत्तम, युक्तिस्वरूप असून संसारापासून पृथक अशा प्रकारे (उत्, ऐत्) उदय होतो वा विद्यमान आहे (सर्व जग त्यात असूनही तो जगापेक्षा वेगळा आहे) (अस्य) या परमपुरूषाचा (पादः) एक भाग (इह) या जगाच्या (रचना, उत्पत्ती, स्थिती या रूपात) (पुनः) पुन्हा उत्पत्ति-प्रलयाच्या रूपात प्रकट (अभवत्) होत असतो. (ततः) त्यानंतर (साशनानशने) खाणारे म्हणजे चेतन आणि न खाणारे म्हणजे जड या दोन्ही (विष्वङ्) सर्वत्र व्याप्त होतो (वि, आक्रमत्) विशेषत्वाने व्याप्त आहे ॥4॥
भावार्थ
भावार्थ - तो परमेश्वर या कार्यरूप जगाहून वेगळा असून आपल्या सामर्थ्याच्या तीन अंशाने प्रकाशित व्यक्त होत आहे तो आपल्या रचनासामर्थ्याच्या एका भागाने सर्व सृष्टीला वारंवार उत्पन्न वा विलीन करीत असतो. आणि रचनेनंतर तो त्या स्वनिर्मित सृष्टीच्या चराचर पदार्थांत व्याप्त राहून विद्यमान असतो. ॥4॥
इंग्लिश (3)
Meaning
God, with three-fourths of His grandeur rises higher than all, separate from the world, enjoying liberation. With one fourth of His grandeur He creates and dissolves the universe again and again. Then pervading the animate and inanimate creation He resides therein.
Meaning
Thrice more glorious arises the Purusha above the created universe wherein one measure of His greatness and grandeur manifests again and again, pervading all the eating and non-eating world, and thence remains transcendent across and over the universe.
Translation
Three-fourths of that Cosmic Man rise up in the heaven. The one fourth is still here on the earth. Then He starts spreading in all directions towards all that eats and eats not. (1)
Notes
Sāśana and anaśana, that eats and that which eats not; living and non-living beings (चेतन-अचेतन) Also, heaven, where the soul finds various enjoyments, and er, ulti mate release, where there is no sorrow or pain, nor any pleasure or enjoyment.
बंगाली (2)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুন সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- পূর্বোক্ত (ত্রিপাৎ) তিন অংশযুক্ত (পুরুষঃ) পালক পরমেশ্বর (ঊর্ধ্বঃ) সর্বাপেক্ষা উত্তম মুক্তি স্বরূপ সংসার হইতে পৃথক্ (উৎ, ঐত) উদয়কে প্রাপ্ত হয় । (অস্য) এই পুরুষের (পাদঃ) একভাগ (ইহ) এই জগতে (পুনঃ) বারবার উৎপত্তি প্রলয়ের চক্র দ্বারা (অভবৎ) হয় । (ততঃ) ইহার পশ্চাৎ (সাশনানশনে) খাদ্য গ্রহণকারী চেতন এবং খাদ্য না গ্রহণকারী জড় এই দুইয়ের (অভি) প্রতি (বিষ্বঙ্) সর্বত্র প্রাপ্ত হইয়া (বি, অক্রামৎ) বিশেষ করিয়া ব্যাপ্ত হয় ॥ ৪ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই পূর্বোক্ত পরমেশ্বর কার্য্য জগৎ হইতে পৃথক্ তিন অংশ দ্বারা প্রকাশিত এক অংশ নিজ সামর্থ্য বলে সকল জগৎকে বারবার উৎপন্ন করে, পশ্চাৎ সেই চরাচর জগতে ব্যাপ্ত হইয়া স্থিত আছে ॥ ৪ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
ত্রি॒পাদূ॒র্ধ্ব উদৈ॒ৎপুর॑ুষঃ॒ পাদো॑ऽস্যে॒হাভ॑ব॒ৎ পুনঃ॑ ।
ততো॒ বিষ্ব॒ঙ্ ব্য᳖ক্রামৎসাশনানশ॒নেऽঅ॒ভি ॥ ৪ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ত্রিপাদিত্যস্য নারায়ণ ঋষিঃ । পুরুষো দেবতা । অনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
পদার্থ
ত্রিপাদূর্ধ্ব উদৈৎপুরুষঃ পাদোঽস্যহাভবৎপুনঃ।
ততো বিষ্বঙ্ ব্যক্রামৎসাশনানশনে অভি।।৬৫।।
(যজু ৩১।৪)
পদার্থঃ পূর্বোক্ত (ত্রিপাৎ পুরুষঃ) তিন পাদ বিশিষ্ট পুরুষ (ঊর্ধ্বঃ) সম্পূর্ণ সংসার থেকে পৃথক হয়ে সদা মুক্ত স্বরূপে (উৎ ঐৎ) বিরাজমান, (অস্য) এই পুরুষের (পাদঃ) এক পাদ (ইহ) এই জগতে (পুনঃ) বারংবার উৎপত্তি প্রলয়ের চক্রে (অভবৎ ) আসে। (ততঃ) এর অনন্তর (সাশনান শনে অভি) ভোজনশীল চেতন এবং ভোজনরহিত জড় এই উভয় প্রকারের চরাচর লোককে (বিষ্বঙ্) সকল দিক হতে ব্যাপ্ত হয়ে (বি অক্রামত) তিনি বিশেষরূপে তাদের উৎপন্ন করেন।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ পরমাত্মা কার্য জগৎ থেকে পৃথক তিন অংশে প্রকাশিত হয়ে এক অংশ সামর্থ্য দ্বারা সকল জগৎকে বারংবার উৎপন্ন করেন। তৎপশ্চাৎ সেই চরাচর জগতে ব্যাপ্ত হয়ে স্থিত থাকেন। এই মন্ত্রে পরমাত্মার যে চার পাদ বর্ণনা করা হয়েছে তা উপদেশ করার এক ভঙ্গিমা, বাস্তবে সেই পরমেশ্বরের কোন হস্ত পদ নেই। সেই পরমপুরুষ এক অংশ দ্বারা জগৎকে উৎপন্ন করে তিন অংশে পৃথক থাকেন। এটি বলার তাৎপর্য এই যে, সমস্ত জগৎ হতে পরমাত্মাই মহান, জগৎ ক্ষুদ্র।।৬৫।।
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