यजुर्वेद - अध्याय 31/ मन्त्र 6
ऋषिः - नारायण ऋषिः
देवता - पुरुषो देवता
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
385
तस्मा॑द्य॒ज्ञात् स॑र्व॒हुतः॒ सम्भृ॑तं पृषदा॒ज्यम्।प॒शूँस्ताँश्च॑क्रे वाय॒व्यानार॒ण्या ग्रा॒म्याश्च॒ ये॥६॥
स्वर सहित पद पाठतस्मा॑त्। य॒ज्ञात्। स॒र्व॒हुत॒ इति॑ सर्व॒ऽहुतः॑। सम्भृ॑त॒मिति॒ सम्ऽभृ॑तम्। पृ॒ष॒दा॒ज्यमिति॑ पृषत्ऽआ॒ज्यम्। प॒शून्। तान्। च॒क्रे॒। वा॒य॒व्या᳖न्। आ॒र॒ण्याः। ग्रा॒म्याः। च॒। ये ॥६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतम्पृषदाज्यम् । पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये ॥
स्वर रहित पद पाठ
तस्मात्। यज्ञात्। सर्वहुत इति सर्वऽहुतः। सम्भृतमिति सम्ऽभृतम्। पृषदाज्यमिति पृषत्ऽआज्यम्। पशून्। तान्। चक्रे। वायव्यान्। आरण्याः। ग्राम्याः। च। ये॥६॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे मनुष्यास्तस्मात् सर्वहुतो यज्ञात् सर्वं पृषदाज्यं सम्भृतं य आरण्या ग्राम्याश्च तान् वायव्यान् पशून् यश्चक्रे तं विजानीत॥६॥
पदार्थः
(तस्मात्) पूर्वोक्तात् (यज्ञात्) पूजनीयात् पुरुषात् (सर्वहुतः) सर्वैर्हूयत आदीयते तस्मात् (सम्भृतम्) सम्यक् सिद्धं जातम् (पृषदाज्यम्) दध्याज्यादि भोज्यं वस्तु (पशून्) (तान्) (चक्रे) करोति (वायव्यान्) वायुवद्गुणान् (आरण्याः) अरण्ये भवाः सिंहादयः (ग्राम्याः) ग्रामे भवा गवादयः (च) (ये)॥६॥
भावार्थः
येन सर्वैर्ग्रहीतव्येन पूज्येन जगदीश्वरेण सर्वजगद्धिताय दध्यादि भोग्यं वस्तु ग्रामस्था वनस्थाश्च पशवो निर्मितास्तं सर्व उपासीरन्॥६॥
हिन्दी (5)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! (तस्मात्) उस पूर्वोक्त (सर्वहुतः) जो सबसे ग्रहण किया जाता उस (यज्ञात्) पूजनीय पुरुष परमात्मा से सब (पृषदाज्यम्) दध्यादि भोगने योग्य वस्तु (सम्भृतम्) सम्यक् सिद्ध उत्पन्न हुआ (ये) जो (आरण्याः) वन के सिंह आदि (च) और (ग्राम्याः) ग्राम में हुए गौ आदि हैं (तान्) उन (वायव्यान्) वायु के तुल्य गुणों वाले (पशून्) पशुओं को जो (चक्रे) उत्पन्न करता है, उसको तुम लोग जानो॥६॥
भावार्थ
जिस सबको ग्रहण करने योग्य, पूजनीय परमेश्वर ने सब जगत् के हित के लिये दही आदि भोगने योग्य पदार्थ और ग्राम के तथा वन के पशु बनाये हैं, उसकी सब लोग उपासना करो॥६॥
पदार्थ
पदार्थ = ( तस्मात् ) = उस ( यज्ञात् ) = सर्वपूज्य ( सर्वहुत ) = सब को नेत्र, श्रोत्र, वाक्, हस्त, पाद, प्राणादि सब-कुछ देनेवाले परमेश्वर से ( पृषद् आज्यम् ) = दधि, दुग्ध घृत आदि भोज्य पदार्थ ( सम्भृतम् ) = उत्पन्न हुए। ( ये ) = जो ( आरण्या: ) = वन के सिंह, सूकर आदि ( च ) = और ( ग्राम्या: ) = ग्राम में होनेवाले गाय भैंस आदि हैं ( तान् ) = उन ( वायव्यान् ) = वायु के समान वेग आदि गुणोंवाले सब ( पशून् ) = पशुओं को ( चक्रे ) = उत्पन्न करता है।
भावार्थ
भावार्थ = सबके पूजन योग्य और नेत्र, श्रोत्र, प्राणादि अमूल्य अनन्त पदार्थों के दाता परमात्मा ने, दधि, दुग्ध, घृत आदि भोज्य पदार्थ हमारे लिए उत्पन्न किए हैं। उसी जगत्पति ने वन में रहनेवाले, सिंह, सूकर, शृगाल, मृगादि भगनेवाले, पशु बनाए और उसी, प्रभु ने नगरों में रहनेवाले, गौ, घोड़ा, ऊँट, भैंस, बकरी, भेड़ आदि उपकारी पशु बनाये, जो सदा हमारी सेवा कर रहे हैं। दयामय प्रभो! आपको, जो पुरुष, स्मरण नहीं करते, आपकी वैदिक आज्ञा को न मानकर, संसार के भोगों में फँसे रहते हैं, ऐसे कृतघ्न दुष्ट पापियों को जितने भी दुःख हों थोड़े हैं।
विषय
यज्ञ प्रजापति से आज्यसम्भरण, पशुओं की उत्पत्ति ।
भावार्थ
( तस्मात् ) उस (सर्वहुतः ) सर्वपूज्य, सर्वसम्मत ( यज्ञात् ) सर्वोपास्य, सबको प्राण आदि सब कुछ देने हारे परमेश्वर, प्रजापति से ( पृषद् - आज्यम् ) दधि, घृत आदि भोग्य पदार्थ (सम्भृतम् ) उत्पन्न हुआ और वह ही ( तानू ) उन ( वायव्यान् ) वायु के समान गुण वाले, तीव्र वेगवान् अथवा (वायव्यान् ) वायु से जीने हारे (पशून् ) पशुओं के ( ये ) जो (आरण्याः) जंगल के सिंह, शूकर आदि और (ग्राम्याः च) ग्राम के गौ, अश्व आदि सबको ( चक्रे ) उत्पन्न करता है ।अथवा - ( पृषदाज्यं सम्भृतम् ) (पृषंत्-आज्यम्) शरीर में पालक और पूरक रूप से विद्यमान वीर्य या शुक्र को व्यक्त रूप में प्रकट करने वाला, अथवा जिस वीर्यं से प्राणियों के नाना देह यथाक्रम सन्तान रूप में बराबर उत्पन्न होते हैं वह वीर्य भी उसी परमेश्वर की शक्ति से उत्पन्न होता है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पुरुषः । विराडनुष्टुप् । गांधारः ॥
विषय
पृषादाज्य का संभरण
पदार्थ
१. अब तक प्रभु को 'पुरुष' नाम से स्मरण किया था। इसी पुरुष को अब 'यज्ञ' नाम से कहा गया है, क्योंकि वे [क] पूजनीय हैं [देवपूजा] । [ख] प्रकृतिकणों के संगतिकरण से ब्रह्माण्ड का निर्माण करनेवाले हैं। [ग] जीव को उसकी उन्नति के लिए सब कुछ देनेवाले हैं [दान]। वे प्रभु सचमुच 'यज्ञ' हैं। 'सर्वहुत्' हैं - सब-कुछ देनेवाले हैं। २. (तस्मात्) = उस (यज्ञात्) = यज्ञ नामक प्रभु से (सर्वहुत:) [हु-दान] = सब वस्तुएँ देनेवाले से (पृषदाज्यम्) = ‘अन्नं वै पृषदाज्यम्', 'पयः पृषदाज्यम् श० २.८.४.८ । 'पशवो वै पृषदाज्यम् - तै० १.६.३.२ अन्न, दूध तथा पशुओं का (सम्भृतम्) = सम्भरण किया गया। प्राणियों के लिए अन्न व दूध की आवश्यकता है उस अन्न व दूध के उत्पादन में पशु-पक्षी भी साधन हैं। दूध तो उनसे प्राप्त होता ही है। उनके बिना अन्न उत्पादन भी सम्भव नहीं । [क] 'ट्रैक्टर्स' कभी बैलों के स्थानापन्न हो जाएँगे, इस बात की संभावना नहीं है। ऊबड़-खाबड़ भूमि को सम करने में उनकी उपयोगिता ठीक है, हल चलाने के लिए नहीं। ट्रेक्टर्स से जोते गये बड़े-बड़े खेतों में उपज को कृमि खा जाते हैं, छोटे-छोटे खेतों की मुंडेरों पर बैठी चिड़ियाँ उन कृमियों के संहार से उपज को बचाती थीं। ट्रेक्टर्स ने उन मुंडेरों को समाप्त कर इन पक्षियों के बैठने के स्थान ही समाप्त कर दिये। कितना कीटनाशक द्रव्य हम छिड़कते रहेंगे? [ख] बैलों से खेती में भूमि को खाद भी मिलता रहता था। ट्रेक्टर्स के कारण खाद के कारखाने खोलने भी आवश्यक हो गये। [ग] इस कृत्रिम खाद से भूमि अधिक उपज देकर शीघ्र बंजर होनी शुरू हो गई। इन सब विचारों का अन्तिम परिणाम यही है कि अन्न के उत्पादन में पशु-पक्षियों की उपयोगिता रहेगी ही, अतः ये भी यहाँ 'पृषदाज्य' शब्द से कहे गये हैं। उस प्रभु ने जीव के हित के लिए पृषदाज्य को प्राप्त कराया । ३. ये पशु सामान्यतः तीन भागों में विभक्त होते हैं। मन्त्र कहता है कि उस प्रभु ने (पशून् तान्) = उन पशुओं को (चक्रे) = बनाया जो (वायव्यान्) = वायु में उड़नेवाले थे, अर्थात् जिन्हें हम सामान्य भाषा में पक्षी कहते हैं, (च) = और (ये) = जो (आरण्या) = वन के पशु थे (ग्राम्याः च) = और जो ग्रामों में रहनेवाले थे। शेर आदि जंगली पशुओं का निर्माण किया तथा साथ ही गौ इत्यादि पालतू ग्राम्य पशुओं की भी सृष्टि की। 'तिर्यङ' शब्द अब तक सामान्यरूप से 'पशु-पक्षी ' दोनों के लिए प्रयुक्त होता है। मनुष्येतर सभी चर प्राणी यहाँ पशु शब्द से विवक्षित है। वे पशु हैं [ पश्यन्ति] देखते हैं, समझते नहीं। वे बुद्धि का विकास नहीं कर पाते। वासना के अनुसार सृष्टि के प्रारम्भ से अन्त तक चलते रहते हैं, इसीलिए उन्हें यहाँ 'पशु' इस सामान्य शब्द से कहा है। इन सब पशुओं की उपयोगिता है। शेर न होते तो मृग इतने अधिक बढ़ जाते कि हमारी खेतियों को ख़तरा पैदा हो जाता। मक्खी का मल वमन को रोकने में अचूक औषध का काम देता है। एवं प्रत्येक प्राणी की उपयोगिता है, जिसको हम अपनी अल्पज्ञता के कारण पूर्णरूपेण समझते नहीं । सृष्टि में इन सब वायव्य, आरण्य व ग्राम्य पशुओं का अपना-अपना स्थान है।
भावार्थ
भावार्थ-उस सर्वदाता यज्ञ नामक प्रभु ने अन्न व दूध का संभरण किया। उसके लिए ही पक्षियों, आरण्य व ग्राम्य पशुओं का निर्माण किया।
मन्त्रार्थ
(तस्मात्-सर्वहुत:-यज्ञात्) समष्टि की आहुति जिसमें हुत हो उस अथवा जो सब के द्वारा हूयमान ग्रहण करने योग्य है उस ऐसे यजतीय सङ्गमनीय परमात्मा से (पृषदाज्यं सम्भृतम्) अन्न-अदनीय ओषधि वनस्पति वस्तु स्थूल अन्न-दानारूप पृषत्| और रसरूप हरी वनस्पति आज्य है| निष्पन्न हुई (तान्-पशून्-वायव्यान् चक्रे) उन पशुओं तथा पक्षियों को भी उत्पन्न किया (च) और (ये आरश्या:-ग्राम्याः) जो वन्य ग्राम्य पशु पक्षी हैं उन्हें भी उत्पन्न किया ॥६॥
टिप्पणी
"तस्मात्” इति ऋग्वेदे । "विराजं देहमधिकरणं कृत्वा पुरुषः-जायत्" (सायणः)"धि - उपरि अधिष्टाता (दयानन्दः) “रिश्चिर, विरेचने (रुधादि०) अत्यरिणक्= अतिशयेन बहिनिः सारितवान् व्यत्ययेन श्नः स्थाने श्यन् विकरणः"८ (ऋग्वेदे)।
विशेष
(ऋग्वेद मं० १० सूक्त ६०) ऋषि:- नारायणः १ - १६ । उत्तरनारायणः १७ – २२ (नारा:आपः जल है आप: नर जिसके सूनु है- सन्तान हैं, ऐसे वे मानव उत्पत्ति के हेतु-भूत, अयन-ज्ञान का आश्रय है जिसका बह ऐसा जीवजन्मविद्या का ज वाला तथा जनकरूप परमात्मा का मानने वाला आस्तिक महाविद्वान् ) देवता - पुरुष: १, ३, ४, ६, ८–१६। ईशानः २। स्रष्टा ५। स्रष्टेश्वरः ७। आदित्यः १७-१९, २२। सूर्य २०। विश्वे देवाः २१। (पुरुष- समष्टि में पूर्ण परमात्मा)
मराठी (2)
भावार्थ
ज्या परमेश्वराला सर्वजण मानतात, ज्याने सर्व जगाच्या हितासाठी दही वगैरे भोग्य पदार्थ आणि ग्रामीण व वन्य पशू निर्माण केलेले आहेत त्या परमेश्वराची सर्वांनी उपासना करावी.
विषय
पुनश्च, तोच विषय -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, (तस्मात्) त्या (सर्वहुतः) सर्वांद्वारे जो ग्रहणीय वा नजरणीय आहे, अशा त्या (यज्ञात्) पूजनीय पुरूष परमात्मयापासून (पृषदाज्यम्) दही आदी खाद्य भोज्य पदार्थ (सम्भृतम्) निर्माण झाले (वा परमेश्वराने मनुष्यासाठी उपभोग्य पदार्थ उत्पन्न केले) तसेच (ये) जे (आरण्या:) वन्य पशू सिंह आदी (च) आणि (ग्राम्याः) ग्रामाचे गौ आदी पाळीव पशू आहेत (तान्) त्या (वायव्यान्) वायू प्रमाणे गुण असलेले (वायूवर जीवन जगणार) (पशून्) पशू (चक्रे) परमेश्वराने उत्पन्न केले. हे मनुष्यांनो तुम्ही त्या परमेश्वराला यर्थाथ रूपात जाणून घ्या. ॥6॥
भावार्थ
भावार्थ - सर्वांचा ग्रहणीय जो परमेश्वर,त्याने सर्व जगाच्या हिताकरिता दही आदी भोज्य पदार्थ आणि ग्राम्य व तसेच वन्य पशू उत्पन्न केले आहेत, तुम्ही त्या ईश्वराचीच उपासना करा. ॥6॥
इंग्लिश (3)
Meaning
From that great God, adorable by all, were created curd and clarified butter. He creates the wild and tame animals swift like air.
Meaning
From that cosmic yajna was born the sacred ghrta, universal material of creation. He created the animals, all those birds of the air, rangers of the forest and inmates of the village.
Translation
From that cosmic sacrifice, to which all things have been offered as oblations, milk and curd (sustaining food) are obtained. Thereon He makes creatures that fly in the air, and the animals, wild and domestic. (1)
Notes
Tasmat yajñat sarvahutaḥ, from that sacrifice, in which everything was offered as oblation. Apparently, some verse is missing here, which is found in the Atharva Veda. The word 'tasmat' shows, that there is some thing previously mentioned to which it refers. Pṛṣadājyam, दधिमिश्रितं आज्यं, ghee mixed with curd; various articles of consumption such as ghee, curd etc. Vāyavyān pasūn, animals or creatures that fly in air. Also, angeland वायुदेवताकान् पशून्, the animals whose presiding deity is Väyu. 'अन्तरिक्षदेवत्याः खलु वै पशवः' all the animals have the mid-space (अंतरिक्ष) as their presiding deity. Antariksa and Väyu are closely related. Therefore all the animals belong to Väyu. Āraṇyā grāmyāḥ, wild and domestic.
बंगाली (2)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! (তস্মাৎ) সেই পূর্বোক্ত (সর্বহুতঃ) যাহা সকলের দ্বারা গ্রহণ করা হয় সেই (য়জ্ঞাৎ) পূজনীয় পুরুষ পরমাত্মা হইতে সকল (পৃষদাজ্যম্) দধ্যাদি ভোগ করিবার যোগ্য বস্তু (সম্ভৃতম্) সম্যক্ সিদ্ধ উৎপন্ন হইল (য়ে) যে সব (আরণ্যাঃ) বনের সিংহ আদি (চ) এবং (গ্রাম্যাঃ) গ্রামে উৎপন্ন গাভি আদি আছে (তান্) সেই সব (বায়ব্যান্) বায়ুতুল্য গুণযুক্ত (পশূন্) পশুদেরকে যিনি (চক্রে) উৎপন্ন করেন, তাহাকে তুমি জানো ॥ ৬ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- সকলের গ্রহণীয়, পূজনীয় পরমেশ্বর সকল জগতের হিতার্থে দধি আদি ভোগ্য পদার্থ এবং গ্রামের তথা বনের পশু রচনা করিয়াছেন, তাহাকে সকলে উপাসনা কর ॥ ৬ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
তস্মা॑দ্য॒জ্ঞাৎ স॑র্ব॒হুতঃ॒ সম্ভৃ॑তং পৃষদা॒জ্যম্ ।
প॒শূঁস্তাঁশ্চ॑ক্রে বায়॒ব্যা᳖নার॒ণ্যা গ্রা॒ম্যাশ্চ॒ য়ে ॥ ৬ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
তস্মাদিত্যস্য নারায়ণ ঋষিঃ । পুরুষো দেবতা । বিরাডনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
পদার্থ
তস্মাদ্যজ্ঞাৎসর্বহুতঃ সম্ভৃতং পৃষদাজ্যম্ ।
পশুঁস্তাঁশ্চক্রে বায়ব্যানারণ্যা গ্রাম্যাশ্চ যে।।৬৭।।
(যজু ৩১।৬)
পদার্থঃ (তস্মাৎ) সেই (সর্বহুতঃ) সর্বপূজ্য (যজ্ঞাৎ) পরমেশ্বর হতে (পৃষদ আজ্যম্) দধি, ঘৃতসহ সকল ভোগ্য পদার্থ (সম্ভৃতম্) উৎপন্ন হয়েছে। (যে) যিনি (আরণ্যাঃ) বনের সিংহ, শুকরসহ সকল প্রাণী (চ) এবং (গ্রাম্যাঃ) গ্রামে থাকা গরু, মহিষ সহ সকল প্রাণীকে [উৎপন্ন করেছেন], (তান্) তিনিই (বায়ব্যান্) বায়ুর সমান বেগ সহ সকল গুণযুক্ত সকল (পশুন্) পশুসমূহকে (চক্রে) উৎপন্ন [সৃষ্টি] করেন।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ সবার পূজনীয় এবং চক্ষু, কর্ণ, প্রাণাদি অমূল্য অনন্ত পদার্থের দাতা পরমাত্মা আমাদের জন্য দধি, দুগ্ধ, ঘৃতসহ সকল ভোজ্য পদার্থ উৎপন্ন করেছেন। ওই জগৎপতিই বনে বাসকারী সিংহ, শুকর, শৃগালসহ সকল পশু সৃষ্টি করেছেন এবং তিনিই নগরে বাসকারী গরু, ঘোড়া, উট, মহিষ, ছাগল, ভেড়াসহ সকল উপকারী পশু সৃষ্টি করেছেন; যারা নিত্য আমাদের সেবা করছে। দয়াময় প্রভু! তোমাকে যে স্মরণ করে না, তোমার বৈদিক আজ্ঞাকে পালন না করে সংসারের ভোগে লিপ্ত থাকে, সেই কৃতঘ্ন, দুষ্ট, পাপীদের যতই দুঃখ প্রাপ্ত হোক তা কমই।।৬৭।।
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