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यजुर्वेद अध्याय - 31

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  • यजुर्वेद - अध्याय 31/ मन्त्र 5
    ऋषिः - नारायण ऋषिः देवता - स्त्रष्टा देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    360

    ततो॑ वि॒राड॑जायत वि॒राजो॒ऽअधि॒ पूरु॑षः।स जा॒तोऽअत्य॑रिच्यत प॒श्चाद् भूमि॒मथो॑ पु॒रः॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ततः॑। वि॒राडिति॑ वि॒ऽराट्। अ॒जा॒य॒त॒। वि॒राज॒ इति॑ वि॒ऽराजः॑। अधि॑। पूरु॑षः। पुरु॑ष॒ऽइति॑ पुरु॑षः ॥ सः। जा॒तः। अति॑। अ॒रि॒च्य॒त॒। प॒श्चात्। भूमि॑म्। अथो॒ऽइत्यथो॑। पु॒रः ॥५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ततोविराडजायत विराजोऽअधि पूरुषः । स जातोऽअत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ततः। विराडिति विऽराट्। अजायत। विराज इति विऽराजः। अधि। पूरुषः। पुरुषऽइति पुरुषः॥ सः। जातः। अति। अरिच्यत। पश्चात्। भूमिम्। अथोऽइत्यथो। पुरः॥५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 31; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्यास्ततो विराडजायत विराजो अधि पूरुष अथो स पुरो जातोऽत्यरिच्यत पश्चाद् भूमिं जनयति तं विजानीत॥५॥

    पदार्थः

    (ततः) तस्मात् पूर्णादादिपुरुषात् (विराट्) विविधैः पदार्थै राजते प्रकाशते स विराट् ब्रह्माण्डरूपः (अजायत) जायते (विराजः) (अधि) उपरि अधिष्ठाता (पूरुषः) परिपूर्णः परमात्मा (सः) (जातः) प्रादुर्भूतः (अति) (अरिच्यत) अतिरिक्तो भवति (पश्चात्) (भूमिम्) (अथो) (पुरः) पुरस्ताद्वर्त्तमानः॥५॥

    भावार्थः

    परमेश्वरादेव सर्वं समष्टिरूपं जगज्जायते स च तस्मात् पृथग्भूतो व्याप्तोऽपि तत्कल्मषालिप्तोऽस्य सर्वस्याधिष्ठाता भवति। एवं सामान्येन जगन्निर्माणमुक्त्वा विशेषतया भूम्यादिनिर्माणं क्रमेणोच्यते॥५॥

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    हिन्दी (5)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! (ततः) उस सनातन पूर्ण परमात्मा से (विराट्) विविध प्रकार के पदार्थों से प्रकाशमान विराट् ब्रह्माण्डरूप संसार (अजायत) उत्पन्न होता (विराजः) विराट् संसार के (अधि) ऊपर अधिष्ठाता (पूरुषः) परिपूर्ण परमात्मा होता है, (अथो) इसके अनन्तर (सः) वह पुरुष (पुरः) पहिले से (जातः) प्रसिद्ध हुआ (अति, अरिच्यत) जगत् से अतिरिक्त होता है (पश्चात्) पीछे (भूमिम्) पृथिवी को उत्पन्न करता है, उसको जानो॥५॥

    भावार्थ

    परमेश्वर ही से सब समष्टिरूप जगत् उत्पन्न होता है, वह उस जगत् से पृथक् उसमें व्याप्त भी हुआ उसके दोषों से लिप्त न होके इस सबका अधिष्ठाता है। इस प्रकार सामान्य कर जगत् की रचना कह के विशेष कर भूमि आदि की रचना को क्रम से कहते हैं॥५॥

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    पदार्थ

    पदार्थ =  ( ततः ) = उस सनातन पूर्ण परमात्मा से  ( विराट् ) = सूर्य चन्द्रादि विविध लोकों से प्रकाशवान् ब्रह्माण्डरूप संसार  ( अजायत ) = उत्पन्न हुआ।  ( विराजः अधि ) = विराट् संसार के भी ऊपर अधिष्ठाता  ( पूरुषः ) = सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मा होता है, ( अथो ) = इसके अनन्तर  ( सः ) = वह पुरुष  ( पुरः ) = सब से प्रथम विद्यमान रह कर  ( जातः ) = इस जगत् में प्रसिद्ध हुआ ( अति अरिच्यत ) = जगत् से अतिरिक्त होता है। ( पश्चात् भूमिम् ) = पीछे पृथिवी और शरीरों को उत्पन्न करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ = परमात्मा से ही सब समष्टिरूप जगत् उत्पन्न होता है। वह प्रभु उस जगत् से पृथक्, उसमें व्याप्त होकर भी, उसके दोषों से लिप्त न होके इस सबका अधिष्ठाता है। ऐसे नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्त स्वभाव सदा आनन्द स्वरूप जगदीश की ही उपासना करनी चाहिए।

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    भावार्थ

    (ततः) उस पूर्ण पुरुष परमेश्वर से (विराट् अजायत) 'विराट् ' विविध पदार्थों, नाना सूर्यादि लोकों से प्रकाशमान ब्रह्माण्ड उत्पन्न हुआ । (विराज : अधि) उस विराट् के भी ऊपर अधिष्ठाता रूप से ( पूरुषः) पुर में बसने वाले स्वामी के समान, ब्रह्माण्डों को पूर्ण करने हारा व्यापक परमेश्वर ही था । (सः) वह (पुरः) सबसे पूर्व विद्यमान रह कर ( जातः) कार्य - जगत् में शक्ति रूप से प्रकट होकर भी ( अति अरिच्यत ) उससे भी कहीं अधिक बड़ा है। ( पश्चात् ) पीछे से वह (भूमिम् ) प्राणियों और वृक्षादि को उत्पन्न करने वाली भूमि को उत्पन्न करता है । अथवा- (स जातः अतिभरिच्यत) वह प्रादुर्भूत होकर भी उस जगत् से पृथक् रहा और (सः पश्चाद्) वह पीछे (भूमिम् अथो पुरः) भूमि और जीवों के शरीरों को उत्पन्न करता है। विशेष विवरण अथर्ववेदालोकभाष्य कां० १८ । ६ । ९॥

    टिप्पणी

    'विराळजायत' इति काण्व ० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    स्रष्टा । अनुष्टुप् । गान्धारः ॥

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    विषय

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    पदार्थ

    १. (ततः) = उस पुरुष [निमित्तकारण] से (विराट्) = एक देदीप्यमान पिण्ड (अजायत) = उत्पन्न हुआ। सांख्यदर्शन में यही 'महत्' नाम से कहा गया है। जो प्रकृति के कणों का साम्यावस्था का पुञ्ज सर्वत्र समरूप से फैला हुआ था, वह सृष्टि के प्रराम्भ में प्रभु द्वारा गति दिये जाने पर केन्द्र की ओर खिंचने लगा, चारों ओर खाली स्थान हो गया। यही आकाश था। सारे कण थोड़े स्थान में आने से भारी हो गये तो ये ' महत्' कहलाये। प्रभु ने उस साम्यावस्थावाली प्रकृति को (महत्) = विराट् व एक हैम पिण्ड का रूप दे दिया। इस पिण्ड का उपादानकारण तो प्रकृति ही थी, निमित्त 'परमात्मा' था। २. (विराजः) = इस विराट् पिण्ड का (अधि) = अधिष्ठातृरूपेण (पूरुषः) = वह पुरुष था । इस महत्तत्त्व से अब अहंकारादिक्रमेण सृष्टि का निर्माण होगा। इस निर्माण में उपादानकारण निश्चय से यह विराट् ही है, इस विराट् के अध्यक्ष वे प्रभु हैं। उनकी अध्यक्षता में ही इस चराचर जगत् का निर्माण होता है। ३. (सः) = यह विराट् (जातः) = उत्पन हुआ हुआ (अत्यरिच्यत) = संसार के किसी भी पदार्थ से अधिक दीप्तिवाला हुआ। प्रारम्भ में यह पिण्ड अग्निमय था । ४. (पश्चात्) = इस विराट् पिण्ड के बन जाने के पश्चात् (भूमिम्) = [भवन्ति भूतानि यस्याम्] प्राणियों के निवासस्थान भूत लोकों को उस अध्यक्ष ने बनाया। प्राणियों के सशरीर होने से पहले इन लोकों को बनना आवश्यक है। इन लोकों का ही अन्वर्थ नाम 'भूमि' है। भूमि से अभिप्राय केवल इस पृथिवी का नहीं । ५. (अथ) = और अब इन लोकों के बन जाने के पश्चात् (पुरः) = शरीर बनाये गये। शरीरों को 'पुर:' इसलिए कहा है कि 'पूर्यन्ते सप्त धातुभिः 'ये रस- रुधिर आदि सप्त धातुओं से पूर्ण हैं। 'पृ पालनपूरणयो:' धातु से बना यह शब्द इस भावना का भी सूचक है कि यह शरीर पालन व पूरण के योग्य है। असुरों की नगरियाँ भी वेद में 'पुर' कहलायी हैं। वहाँ 'पृ' का अर्थ अपने को मुक्त कराना deliver from या बाहर लाना bring out of है। हमें इनसे अपने को क्योंकि मुक्त करने का प्रयत्न करना है, अतः ये भी पुर हैं। अब लोकों व पुरों के बन जाने के बाद सृष्टिक्रम का वर्णन अगले मन्त्र में द्रष्टव्य है।

    भावार्थ

    भावार्थ - यह संसार प्रभु द्वारा प्रराम्भ में एक विराट् पिण्ड के रूप में उत्पन्न किया जाता है। उस विराट् पिण्ड से ही इन लोकों व शरीरों की उत्पत्ति होती है।

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    मन्त्रार्थ

    (ततः-विराड्-अजायत) उस आदि पुरुष परमात्मा से विराट् विविध पदार्थों से राजमान प्रकटीभूत ब्रह्माण्ड या समष्टिरूप जगत् उत्पन्न हुआ (विराजः-अधि-पुरुष:) विराट् उक्त ब्रह्माण्ड विविध संसार के ऊपर या उसका अधिनायक रूप में पूर्ण परमात्मा है (पश्चात् सः जातः) पश्चात् उस उत्पन्न हुए विराट् ब्रह्माण्ड ने पूर्ण पुरुष परमात्मा के अधिष्ठातृत्व में (भूमिम्-अथ पुर:-प्रत्यरिच्यत) भूमि को उत्पत्ति स्थान लोक को इसके अनन्तर प्राणिदेह पुरों-शरीरों को अतिशय से विरचित किया बाहर निकाला या प्रकट किया ॥५॥

    विशेष

    (ऋग्वेद मं० १० सूक्त ६०) ऋषि:- नारायणः १ - १६ । उत्तरनारायणः १७ – २२ (नारा:आपः जल है आप: नर जिसके सूनु है- सन्तान हैं, ऐसे वे मानव उत्पत्ति के हेतु-भूत, अयन-ज्ञान का आश्रय है जिसका बह ऐसा जीवजन्मविद्या का ज वाला तथा जनकरूप परमात्मा का मानने वाला आस्तिक महाविद्वान् ) देवता - पुरुष: १, ३, ४, ६, ८–१६। ईशानः २। स्रष्टा ५। स्रष्टेश्वरः ७। आदित्यः १७-१९, २२। सूर्य २०। विश्वे देवाः २१। (पुरुष- समष्टि में पूर्ण परमात्मा)

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    त्या पूर्ण सनातन परमेश्वरापासून नाना प्रकारचे पदार्थ प्रकाशित होतात व ब्रह्मांडरूपी जग उत्पन्न होते. त्या जगापासून परमेश्वर पृथकही असतो व त्यात व्याप्तही असतो. जगातील दोषात तो लिप्त नसतो; पण सर्वांचा अधिष्ठाता असतो. याप्रमाणे तो पुरुष (परमेश्वर) सृष्टी रचनेपूर्वीही होता व नंतर भूमी इत्यादींनाही उत्पन्न करतो.

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    विषय

    पुन्हा तोच विषय -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, (ततः) त्या सनातन पूर्ण परमात्म्यापासून (विराट्) विविध प्रकारच्या पदार्थांनी सुशोभित हे विराट ब्रह्माण्डरूप संसार (अजायत) उत्पन्न झाले आहे. या (विराजः) विराट संसाराच्या (अधि) वर अधिष्ठाता तो (पुरूषः) परिपूर्ण परमात्माच आहे (व होता) (अथो) यानंतर (सः) तो परमपुरूष (पुरः) आरंभापासून (जातः) (अधिष्ठाता व स्वामी म्हणून) प्रसिद्ध होता (व आहे) या शिवाय तो (अति, अरिच्यात) जगापासून वेगळा असून तोच (पश्‍चात्) मागें यानंतर (भूमिम्) पृथ्वीला उत्पन्न करतो. (परमेश्‍वराच्या या स्वरूपाला तुम्ही नीट समजून घ्या.) ॥5॥

    भावार्थ

    भावार्थ - परमेश्‍वरापासून या सर्व समष्टि रूप जगाची उत्पत्ती होते. तो या उत्पन्न जगापासून पृथक असूनही त्यामधे व्याप्त आहे, तसे असूनही तो जगाच्या दोषांनी लिप्त होत नाही. तोच जगाचा अधिष्ठाता वा नियामक आहे. याप्रकारे सामान्यजगाची रचना करून भुमी आदीच्या रचनेविषयी क्रमाने पुढील मंत्रात सांगितले जात आहे. ॥5॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    God creates the universe, and lords over it. He then pre-existent, remains aloof from the world, arid afterwards creates the Earth.

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    Meaning

    From Purusha arises Virat, the cosmic form, Prakriti. The Purusha manifests therein and remains sovereign over the Virat. Yet, even while manifest in the Virat, He remains apart and uninvolved before and after the creation and then creates the earth and human habitations. (That is cosmic yajna. )

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    Translation

    From that Cosmic Man, super-luminiscence is born and from superluminiscence again the creative factor is born. Expanding, He exceeds the earth backward and forward both. (1)

    Notes

    Virāt, Virāj (Virāt in the nominative case) is said to have come in the form of the mundane egg, from the Adi Puruşa, the primeval Puruşa, or presiding Male or Spirit, who entered into this egg, which He animates as its vital soul or divine princi pal. ' Or, Virāj may be 'the female counterpart of Puruşa, as Aditi of Daksa' in Rv. X. 72. 4-5. (Griffith). विराट् ब्रह्माण्डदेह:, universal form of the God Supreme. Super-luminescence. Virājo adhi pūruṣaḥ, from Virāj again man was born. According to Mahidhara, from the God Supreme (ब्रह्म) Viraj was created and the God Supreme having entered into Virāj was born as soul (जीव).

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    बंगाली (2)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! (ততঃ) সেই সনাতন পূর্ণ পরমাত্মা হইতে (বিরাট্) বিবিধ পদার্থ দ্বারা প্রকাশমান বিরাট্ ব্রহ্মান্ডস্বরূপ সংসার (অজায়ত) উৎপন্ন হয় । (বিরাজঃ) বিরাট্ সংসারের (অধি) উপর অধিষ্ঠাতা (পুরূষঃ) পরিপূর্ণ পরমাত্মা হয় । (অধো) ইহার অনন্তর (সঃ) সেই পুরুষ (পুরঃ) প্রথম হইতে (জাতঃ) প্রসিদ্ধ (অতি, অরিচ্যতে) জগৎ হইতে অতিরিক্ত হয় । (পশ্চাৎ) পশ্চাৎ (ভূমিম্) পৃথিবীকে উৎপন্ন করে ইহা জানিয়া লহ ॥ ৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- পরমেশ্বরই হইতে সব সমষ্টি রূপ জগৎ উৎপন্ন হয় । তিনি সেই জগৎ হইতে পৃথক্ তন্মধ্যে ব্যাপ্তও হইয়া, তাহার দোষগুলি দ্বারা লিপ্ত না হওয়া এই সকলের পরিণাম । এই প্রকার সামান্যভাবে জগতের রচনা বলিয়া বিশেষ করিয়া ভূমি আদির রচনাকে ক্রমপূর্বক বলিতেছি ॥ ৫ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ততো॑ বি॒রাড॑জায়ত বি॒রাজো॒ऽঅধি॒ পূর॑ুষঃ ।
    স জা॒তোऽঅত্য॑রিচ্যত প॒শ্চাদ্ ভূমি॒মথো॑ পু॒রঃ ॥ ৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ততো বিরাডিত্যস্য নারায়ণ ঋষিঃ । স্রষ্টা দেবতা । অনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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    পদার্থ

    ততো বিরাডজায়ত বিরাজোঽঅধি পূরুষঃ ।

    স জাতোঽঅত্যরিচ্যত পশ্চাদ্ভূমিমথো পুরঃ।।৬৬।।

    (যজু ৩১।৫)

    পদার্থঃ (ততঃ) সেই সনাতন পূর্ণ পরমাত্মা হতে (বিরাট্) সূর্য চন্দ্রাদি বিবিধ লোকসমূহ দ্বারা প্রকাশমান ব্রহ্মাণ্ড রূপ সংসার (অজায়ত) উৎপন্ন হয়েছে। (বিরাজঃ অধি) এই যে বিরাট সংসার, (পূরুষঃ) সর্বত্র পরিপূর্ণ পরমাত্মাই (অথো) এর অনন্তর। (সঃ) ওই পুরুষ (পুরঃ) সর্ব প্রথম বিদ্যমান থেকে (জাতঃ) এই জগতে প্রসিদ্ধ হয়েছেন, (অতি অরিচ্যত) জগৎ থেকে অতিরিক্ত হয়ে  (পশ্চাৎ ভূমিম্) পশ্চাতে পৃথিবীকে উৎপন্ন করেন।

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ পরমাত্মা হতেই সকল সমষ্টিরূপ জগৎ উৎপন্ন হয়। সেই প্রভু এই জগতে ব্যাপ্ত হয়েও জগৎ হতে পৃথক এবং এই সকলের অধিষ্ঠাতা। ওইরূপ নিত্য শুদ্ধ ও মুক্ত স্বভাবযুক্ত পরমাত্মার উপাসনা করা উচিৎ।।৬৬।।

     

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