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यजुर्वेद अध्याय - 31

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  • यजुर्वेद - अध्याय 31/ मन्त्र 2
    ऋषिः - नारायण ऋषिः देवता - ईशानो देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    587

    पुरु॑षऽए॒वेदꣳ सर्वं॒ यद्भू॒तं यच्च॑ भाव्यम्।उ॒तामृ॑त॒त्वस्येशा॑नो॒ यदन्ने॑नाति॒रोह॑ति॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पुरु॑षः। ए॒व। इ॒दम। सर्व॑म्। यत्। भू॒तम्। यत्। च॒। भा॒व्य᳖म् ॥ उ॒त। अ॒मृ॒तत्वस्येत्य॑मृत॒ऽत्वस्य॑। ईशा॑नः। यत्। अन्ने॑न। अ॒ति॒रोहतीत्य॑ति॒ऽरोह॑ति ॥२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुरुष एवेदँ सर्वँयद्भूतञ्यच्च भाव्यम् । उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पुरुषः। एव। इदम। सर्वम्। यत्। भूतम्। यत्। च। भाव्यम्॥ उत। अमृतत्वस्येत्यमृतऽत्वस्य। ईशानः। यत्। अन्नेन। अतिरोहतीत्यतिऽरोहति॥२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 31; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! यद्भूतं यच्च भाव्यमुतापि यदन्नेनाऽतिरोहति तदिदं सर्वममृतत्वस्येशानः पुरुष एव रचयति॥२॥

    पदार्थः

    (पुरुषः) सत्यैर्गुणकर्मस्वभावैः परिपूर्णः (एव) (इदम्) प्रत्यक्षाऽप्रत्याक्षात्मकं जगत् (सर्वम्) सम्पूर्णम् (यत्) (भूतम्) उत्पन्नम् (यत्) (च) (भाव्यम्) उत्पत्स्यमानम् (उत्) अपि (अमृतत्वस्य) अविनाशिनो मोक्षसुखस्य कारणस्य वा (ईशानः) अधिष्ठाता (यत्) (अन्नेन) पृथिव्यादिना (अतिरोहति) अत्यन्तं वर्द्धते॥२॥

    भावार्थः

    हे मनुष्याः! येनेश्वरेण यदा यदा सृष्टिरभूत् तदा तदा निर्मिता, इदानीं धरति पुनर्विनाश्य रचिष्यति यदाधारेण सर्वं वर्त्तते वर्द्धते च तमेव परेशं परमात्मानमुपासीध्वं नाऽस्मादितरम्॥२॥

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    हिन्दी (5)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! (यत्) जो (भूतम्) उत्पन्न हुआ (च) और (यत्) जो (भाव्यम्) उत्पन्न होनेवाला (उत) और (यत्) जो (अन्नेन) पृथिवी आदि के सम्बन्ध से (अतिरोहति) अत्यन्त बढ़ता है, उस (इदम्) इस प्रत्यक्ष परोक्ष रूप (सर्वम्) समस्त जगत् को (अमृतत्वस्य) अविनाशी मोक्षसुख वा कारण का (ईशानः) अधिष्ठाता (पुरुषः) सत्य गुण, कर्म, स्वभावों से परिपूर्ण परमात्मा (एव) ही रचता है॥२॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो! जिस ईश्वर ने जब-जब सृष्टि हुई तब-तब रची, इस समय धारण करता फिर विनाश करके रचेगा। जिसके आधार से सब वर्त्तमान है और बढ़ता है, उसी सबके स्वामी परमात्मा की उपासना करो, इससे भिन्न की नहीं॥२॥

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    पदार्थ

    पदार्थ =  ( पुरुषः एव ) = सब जगत् में पूर्ण व्यापक ईश्वर ही  ( यत् ) = जो  ( भूतम् ) = उत्पन्न हुआ  ( यत् च ) = और जो  ( भाव्यम् ) = भविष्य में उत्पन्न होगा और है  ( उत ) = और  ( यत् ) = जो  ( अन्नेन ) = पृथिवी आदि के सम्बन्ध से  ( अति रोहति ) = अत्यन्त बढ़ता है, ( इदम् सर्वम् ) = इस प्रत्यक्ष परोक्ष रूप समस्त जगत् का और  ( अमृतत्वस्य ) = अविनाशी मोक्ष सुख वा कारण का भी  ( ईशानः ) = स्वामी परमात्मा है, वही सब-कुछ रचता है।

    भावार्थ

     भावार्थ = हे मनुष्यो ! जब-जब इस जगत् की रचना हुई तब-तब उस समर्थ प्रभु ने ही इस जगत् को रचा, वही सदा इसका पालन-पोषण और धारण करता रहा, अब कर रहा है, आगे भविष्य में भी इसकी रचना पालन-पोषण धारण करना आदि काम करता रहेगा। और मुक्ति सुख भी उसी जगन्नियन्ता परमात्मा के अधीन है । वही प्रभु, अपने प्यारे, अपने जीवन को पवित्र वेदानुसार पवित्र बनानेवाले ज्ञानी भक्तों को मुक्ति देकर सदा सुखी रखता है।

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    विषय

    पुरुष, भूत, भव्य, अमृत के ईशान और अन्नातिरोही ।

    भावार्थ

    ( पुरुषः एव) वह जगत् में पूर्ण व्यापक परमेश्वर ही है (यत् भूतम् ) जो जगत् उत्पन्न है ( यत् च ) और जो ( भाव्यम् ) भविष्य में उत्पन्न होगा और ( यत् ) जो (अन्नेन) भोग्य अन्न के समान भोग्य कर्मफल से स्वयं (अति रोहिति) शरीर, स्थावर जंगम रूप पृथिव्यादि पर उत्पन्न होता ( इदं सर्वम् ) इस सबका (उत) और (अमृतत्वस्य) अमृततत्व, मोक्ष या सत्, अविनाशी स्वरूप का (ईशान:) स्वामी, परमेश्वर है । वही सब कुछ रचता है । सायण के मत में—भूत और भव्य सब वही पुरुष है । वही अमृतत्व का स्वामी भी है । वही भोग्य अन्न के निमित्त से जगत् रूप में प्रकट होता है । 'अन्नेनातिरोहति'—भोग्येन अन्नेननिमित्तभूतेन स्वकीयकारणा- वस्थामतिक्रम्य परिदृश्यमानां जगदवस्थां प्राप्नोति । तस्मात्प्राणिनां कर्मभोगाय जगदवस्थास्वीकारान्नेदम् तस्य वस्तुतत्वम् । इति सायणः ॥ भोग्य अन्न के कारण अपनी कारण-दशा से पार होकर पुरुष दृश्य जगत् का रूप प्राप्त करता है । फल भोग के लिये वह जगत् की दशा में आता है, वह वैसा है नहीं । सायण के मत में ब्रह्म परिणामी हो जाता है। जीवों के कर्म फल भोग के लिये जीव शरीर धारण करे, सो युक्ति- युक्त है । ईश्वर ही स्वयं ब्रह्माण्ड शरीर में बंधे, यह अनुचित है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ईशानः । निचृदनुष्टुप् । गान्धारः ॥

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    विषय

    त्रिविध जीवों का ईशान

    पदार्थ

    १. इस संसार में जन्म के दृष्टिकोण से जीव तीन भागों में विभक्त हैं [क] प्रथम तो वे जो 'यथाकर्म यथाश्रुतम्' अपने ज्ञान व कर्म के अनुसार किसी शरीर को धारण कर चुके हैं, ये 'भूत' कहलाते हैं, जिनका जन्म हो चुका। [ख] दूसरे वे जीव हैं जो शीघ्र ही समीप भविष्य में जन्म ग्रहण करेंगे। ये 'भाव्य' कहलाते हैं, जिनका जन्म होगा। [ग] इन दोनों से भिन्न तीसरे वे हैं जो हृदयग्रन्थियों के भेदन से, संशयों के छेदन से और कर्मों की क्षीणता व दुर्बलता से ऊपर उठकर उस परावर प्रभु को देखकर 'अमृतत्व' का लाभ कर पाते हैं। ये अन्य जीवों की तरह जन्म-मरण के चक्र में नहीं फँसे रहते, अपितु इस जन्म-मरणचक्र से ऊपर उठकर अमर हो गये हैं । २. (पुरुषः) = ब्रह्माण्डरूप नगरी में शयन व निवास करनेवाला वह प्रभु (एव) = ही (इदम्) = इन (सर्वम्) = सारे (भूतम्) = कर्मानुसार ग्रहीत जन्मवाले भूतों को (यत् च) = और जो (भाव्यम्) = अब समीप भविष्य में ही जन्म ग्रहण करेंगे उन भव्य प्राणियों को (उत) = और (अमृतत्वस्य) = जन्म-मरण के चक्र से ऊपर उठे मुक्तात्माओं को भी (ईशानः) = शासित कर रहे हैं। ये तीनों प्रकार के जीव उस प्रभु के अनुशासन में चल रहे हैं। ये अमर जीव वे हैं (यत्) = जो (अन्नेन) = 'अद्यते अत्ति च भूतानि तस्मादन्नं तदुच्यते' उस सबके आधारभूत अन्न नामक प्रभु के द्वारा, अर्थात् उस प्रभु के चिन्तन के द्वारा (अतिरोहति) = इस जन्म-मृत्यु के चक्र को लाँघ जाते हैं। ये तीनों ही प्रभु से शासित होते हैं, प्रभु इनके ईशान हैं। प्रभु की व्यवस्था के अनुसार ही ये सब उस उस जन्म को धारण कर रहे हैं। मुक्तात्मा भी परामुक्ति के अन्तकाल में उस प्रभु के अनुशासन में होने के कारण ही जन्म ग्रहण करेंगे। इस अनुशासन के कारण ही वे मुक्त होते हुए भी नई सृष्टि के निर्माणादि कार्यों को नहीं कर सकते। ३. वे प्रभु अन्न हैं। उन्हीं के आधार से प्राणिमात्र अन्न को खा रहा है ('मया सोऽन्नमत्ति')। प्रलय के समय वे प्रभु ही सबको निगल जाते हैं 'अत्ति च भूतानि'। ('आ+नम्') = [यास्क] = इसलिए भी वे प्रभु अन्न हैं, क्योंकि अन्त में सब ओर से प्राणी उसी के प्रति प्रणत होते हैं। इस अन्न का जो भी आश्रय करता है वह अन्ततोगत्वा जन्म-मरण को लाँघ जाता है [ अति- रोहति ] । जन्म मरण से ऊपर उठकर वह परमस्थान में स्थित होता है । ४. सामान्य अन्न से शरीर भूखा मरने से बचता है और इस प्रकार जीव - मृत्यु से ऊपर उठता है, परन्तु इस प्रभुरूप अन्न के सेवन से वह जन्म से भी ऊपर उठ जाता है। जन्म-मरणचक्र से अतिरूढ़ करनेवाला यह प्रभुरूप अन्न सचमुच अद्वितीय है।

    भावार्थ

    भावार्थ- वे पुरुष प्रभु 'भूत, भाव्य व अमर' तीनों प्रकार के प्राणियों के ईशान हैं। उस समन्तात् सेवनीय [आनम्] अन्न नामक प्रभु की अनुकम्पा से जीव जन्म मरण को लाँघ पाता है।

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    मन्त्रार्थ

    (पुरुषः-एव-अमृतत्वस्य-ईशानः) परम पुरुष परमात्मा ही अमृतत्व-मोक्ष का स्वामी है- अधिष्ठाता है (उत) अपितु (इदं सर्वं यत्-भूतं यत् च भाव्यम्-यत्-अन्नेन-अति रोहति) यह सब वर्तमान और जो भूत तथा जो होने वाला जगत् है उसका भी और जो अन्न से आहार से बढाता है उसका भी 'पुरुषः-ईशानः' परमात्मा स्वामी है अधिष्ठाता है ॥२॥

    टिप्पणी

    विश्वतो वृत्वा 'इति ऋग्वेदे' अर्थः समान एव तस्य सर्वस्य पुरुष ईशानः-इत्यकांक्षा ददिदं जातं वर्तमानं सर्व जगत् पुरुष एव नेदं वस्तुतत्वम् (सारण:) इत्ययुक्तम् “इदं वर्त्तमानं सर्वे यच्च भूतमतीवं यच्च भाव्यं भविष्यत् तस्य कालत्रयस्य ईशानः । न केवलं कालत्रयस्य ईशानः । उत अमृतत्वस्यापि मोक्षस्यापि ईशानः ( उव्वटः ) यत् जीवजातमन्नेनातिरोहति उत्पद्यते तस्य सर्वस्य चेशानः । ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तो भूतग्राम उक्तः तस्याऽन्नेनैव स्थितेः (महीधर:)

    विशेष

    (ऋग्वेद मं० १० सूक्त ६०) ऋषि:- नारायणः १ - १६ । उत्तरनारायणः १७ – २२ (नारा:आपः जल है आप: नर जिसके सूनु है- सन्तान हैं, ऐसे वे मानव उत्पत्ति के हेतु-भूत, अयन-ज्ञान का आश्रय है जिसका बह ऐसा जीवजन्मविद्या का ज वाला तथा जनकरूप परमात्मा का मानने वाला आस्तिक महाविद्वान् ) देवता - पुरुष: १, ३, ४, ६, ८–१६। ईशानः २। स्रष्टा ५। स्रष्टेश्वरः ७। आदित्यः १७-१९, २२। सूर्य २०। विश्वे देवाः २१। (पुरुष- समष्टि में पूर्ण परमात्मा)

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! जो ईश्वर सृष्टीची उत्पत्ती करतो, तिची धारणा करतो व तिचा विनाशही करतो, तसेच ज्याच्या आधारे सर्व गोष्टी अस्तित्वात असतात व विकसित होत असतात. त्या सर्वांचा स्वामी असलेल्या परमेश्वराची उपासना कर, दुसऱ्याची करू नका.

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    विषय

    पुन्हा, तोच विषय (ईश्‍वरोपासना) -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, (हे जाणून घ्या की) (यत्) जे काही (भाव्यम्) पुढे उत्न्न होणार आहे (उत) या शिवाय (यत्) जे जे (म्हणजे सर्व) (अन्नेन) पृथ्वी आदी पदार्थांच्या संबंधाने (अतिरोहति) घडत आहे (सृष्टीत जे उत्पन्न आणि विद्यमान पदार्थ आहेत आणि) वाढत आहेत (इदम्) अशा त्या प्रत्यक्ष वा अप्रत्यक्ष रूप (सर्वम्) समस्त सृष्टीचा (स्वयिता) (अमृतसकय) आणि अविनाशी मोक्षसुखाचा अथवा कारणाचा (ईशानः) अधिष्ठाता (पुरूषः) सत्य गुण, कर्म स्वभावाने परिपूर्ण केवळ परमात्मा (एव) च एकमेव आहे (अन्य कोणी नाही) ॥2॥

    भावार्थ

    भावार्थ - हे मनुष्यांनो, जाणून घ्या की ज्या ईश्‍वराने जेव्हां जेव्हां सृष्टी रचना झाली, तेंव्हा तेंव्हा ईश्‍वरानेच तिची रचना केली असून तोच यावेळी सृष्टीचा धारणकर्ता आहे तोच या वृष्टीचा विनाश करून पुन्हा तिची निर्मिती उत्पत्ती करील. ज्याच्या आधाराने सर्व पदार्थादी विद्यमान आहेत आणि सर्व वाढत आहे, त्या सर्वांचा स्वामी असलेल्या, परमात्म्याची उपासना करा. त्याहून भिन्न कोणाचीही उपासना करू नका ॥2॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    God, the Lord of final emancipation is in truth the creator of all that hath been and what yet shall be ; and what grows on earth.

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    Meaning

    All this that is and was and shall be is Purusha ultimately, sovereign over immortality and ruler of what grows by living food.

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    Translation

    Whatever all this is, whatever has been in the past and whatever is going to be in future, all that is, in fact, the Cosmic Man Himself. He is the Lord of immortality, and of all what grows by food. (1)

    Notes

    Idam, whatever is present (वर्तमानं), in contra-distinction of भूतं (past) and भव्यं (the future). Amrtasya, of that which is not mortal. Yat annena atiroati, that which grows by consuming food, that is mortal. Lord of all the mortals and of the immortals and the immortality.

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    बंगाली (2)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! (য়ৎ) যাহা (ভূতম্) উৎপন্ন হইয়াছে (চ) এবং (য়ৎ) যাহা (ভাব্যম্) উৎপন্ন হইবে (উত) এবং (য়ৎ) যাহা (অন্নেন) পৃথিবী আদির সম্পর্কের দ্বারা (অতিরোহতি) অত্যন্ত বৃদ্ধিলাভ করে সেই (ইদম্) এই প্রত্যক্ষ পরোক্ষ রূপ (সর্বম্) সমস্ত জগৎকে (অমৃতত্বস্য) অবিনাশী মোক্ষসুখ বা কারণের (ঈশানঃ) অধিষ্ঠাতা (পুরুষঃ) সত্য গুণ, কর্ম্ম, স্বভাব দ্বারা পরিপূর্ণ পরমাত্মা (এব) ই রচনা করে ॥ ২ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! যখন যখন সৃষ্টি হইয়াছে, তখন তখন ঈশ্বর রচনা করিয়াছেন, এই সময় ধারণ করিয়া আছেন, পুনঃ বিনাশ করিয়া রচনা করিবেন । যাহার আধারে সব বর্ত্তমান এবং বৃদ্ধি পায় সেই সকলের স্বামী পরমাত্মার উপাসনা কর, তদ্ভিন্ন অন্য কাহাকে নহে ॥ ২ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    পুর॑ুষऽএ॒বেদꣳ সর্বং॒ য়দ্ভূ॒তং য়চ্চ॑ ভাব্য᳖ম্ ।
    উ॒তামৃ॑ত॒ত্বস্যেশা॑নো॒ য়দন্নে॑নাতি॒রোহ॑তি ॥ ২ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    পুরুষ ইত্যস্য নারায়ণ ঋষিঃ । ঈশানো দেবতা । নিচৃদনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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    পদার্থ

    পুরুষঽএবেদং সর্বং যদ্ভূতং যশ্চ ভাব্যম্ ।

    উতামৃতত্বস্যশানো যদন্নেনাতিরোহতি।।৬৩।।

    (যজু ৩১।২)

    পদার্থঃ (পুরুষঃ এব) সম্পূর্ণ  জগতে পূর্ণ ঈশ্বরই (যৎ) যা (ভূতম্) উৎপন্ন হয়েছে (যৎ চ) এবং যা (ভাব্যম্) ভবিষ্যতে উৎপন্ন হবে (উত) এবং (যৎ) যা (অন্নেন) পৃথিবীসহ সকল কিছুর সম্বন্ধ দ্বারা (অতি রোহতি) বৃদ্ধিপ্রাপ্ত হয়, (ইদম্ সর্বম্) এই প্রত্যক্ষ পরোক্ষ রূপ সম্পূর্ণ জগৎ এবং (অমৃতত্বস্য) অবিনাশী মোক্ষ সুখের কারণ। (ঈশানঃ) এই পরমাত্মা সব কিছুর রচনা করেছেন।

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ হে মনুষ্য! সেই সামর্থ্যবান পরমাত্মাই এই জগতের রচনা করেছেন। তিনিই সর্বদা এর পালন, পোষণ এবং ধারণ করেন, এখনও করছেন এবং ভবিষ্যতেও করবেন। মুক্তি সুখও সেই জগৎনিয়ন্তা পরমাত্মার অধীনে। তিনিই নিজের প্রিয় ভক্তকে মুক্তিসুখ দান করে সদা সুখী রাখেন।।৬৩।।

     

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