यजुर्वेद - अध्याय 31/ मन्त्र 11
ऋषिः - नारायण ऋषिः
देवता - पुरुषो देवता
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
1094
ब्रा॒ह्म॒णोऽस्य॒ मुख॑मासीद् बा॒हू रा॑ज॒न्यः कृ॒तः।ऊ॒रू तद॑स्य॒ यद्वैश्यः॑ प॒द्भ्या शू॒द्रोऽअ॑जायत॥११॥
स्वर सहित पद पाठब्रा॒ह्म॒णः᳖। अ॒स्य॒। मुख॑म्। आ॒सी॒त्। बा॒हूऽइति॑ बा॒हू। रा॒ज॒न्यः᳖। कृ॒तः ॥ ऊ॒रूऽइत्यू॒रू। तत्। अ॒स्य॒। यत्। वैश्यः॑। प॒द्भ्यामिति॑ प॒त्ऽभ्याम्। शू॒द्रः। अ॒जा॒य॒त॒ ॥११ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्राह्मणोस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः । ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्याँ शूद्रोऽअजायत ॥
स्वर रहित पद पाठ
ब्राह्मणः। अस्य। मुखम्। आसीत्। बाहूऽइति बाहू। राजन्यः। कृतः॥ ऊरूऽइत्यूरू। तत्। अस्य। यत्। वैश्यः। पद्भ्यामिति पत्ऽभ्याम्। शूद्रः।अजायत॥११॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे जिज्ञासवो! यूयमस्य सृष्टौ ब्राह्मणो मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतो यदूरू तदस्य वैश्य आसीत् पद्भ्यां शूद्रोऽजायतेत्युत्तराणि यथाक्रमं विजानीत॥११॥
पदार्थः
(ब्राह्मणः) वेदेश्वरविदनयोः सेवक उपासको वा (अस्य) ईश्वरस्य (मुखम्) मुखमिवोत्तमः (आसीत्) अस्ति (बाहू) भुजाविव बलवीर्य्ययुक्तः (राजन्यः) राजपुत्रः (कृतः) निष्पन्नः (ऊरू) ऊरू इव वेगादिकर्मकारी (तत्) (अस्य) (यत्) (वैश्यः) यो यत्र तत्र विशति प्रविशति तदपत्यम् (पद्भ्याम्) सेवानिरभिमानाभ्याम् (शूद्रः) मूर्खत्वादिगुणविशिष्टो मनुष्यः (अजायत) जायते॥११॥
भावार्थः
ये विद्याशमदमादिषूत्तमेषु गुणेषु मुखमिवोत्तमास्ते ब्राह्मणाः। येऽधिकवीर्य्या बाहुवत्कार्य्यसाधकास्ते क्षत्रियाः। ये व्यवहारविद्याकुशलास्ते वैश्या ये च सेवायां साधवो विद्याहीनाः पादाविव मूर्खत्वादिनीचगुणयुक्तास्ते शूद्राः कार्य्या मन्तव्याश्च॥११॥
हिन्दी (7)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे जिज्ञासु लोगो! (अस्य) इस ईश्वर की सृष्टि में (ब्राह्मणः) वेद ईश्वर का ज्ञाता इनका सेवक वा उपासक (मुखम्) मुख के तुल्य उत्तम ब्राह्मण (आसीत्) है (बाहू) भुजाओं के तुल्य बल पराक्रमयुक्त (राजन्यः) राजपूत (कृतः) किया (यत्) जो (ऊरू) जांघों के तुल्य वेगादि काम करनेवाला (तत्) वह (अस्य) इसका (वैश्यः) सर्वत्र प्रवेश करनेहारा वैश्य है (पद्भ्याम्) सेवा और अभिमान रहित होने से (शूद्रः) मूर्खपन आदि गुणों से युक्त शूद्र (अजायत) उत्पन्न हुआ, ये उत्तर क्रम से जानो॥११॥
भावार्थ
जो मनुष्य विद्या और शमदमादि उत्तम गुणों में मुख के तुल्य उत्तम हों, वे ब्राह्मण, जो अधिक पराक्रम वाले भुजा के तुल्य कार्य्यों को सिद्ध करने हारे हों वे क्षत्रिय, जो व्यवहारविद्या में प्रवीण हों, वे वैश्य और जो सेवा में प्रवीण, विद्याहीन, पगों के समान मूर्खपन आदि नीच गुणयुक्त हैं, वे शूद्र करने और मानने चाहियें॥११॥
विषय
वर्ण व्यवस्था का मानव शरीर से समन्वय
व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज
मेरे प्यारे! भद्र मण्डल! हे मेरे प्यारे! ऋषि मण्डल! आज हमें ऋषियों की राष्ट्र परम्परा को विचारना है। राष्ट्र निर्माण करने वाले ऋषिजनों ने राष्ट्र को चार भागों में विभक्त किया राज्यस्ति, सुगष्टना, वाणी अञ्चना इन चार भागों में राष्ट्र का विभाजन कर दिया, यह चारों भाग ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, जो वेद पाठी, बुद्धिमान, सदाचारी, शिष्टाचारी और जिसके द्वारा शिक्षा तथा संस्कृति को देकर राष्ट्र के कल्याण और अपने आत्म कल्याण की ऊँची भावनाएं होती हैं, उसका नाम ब्राह्मण है।
क्षत्रिय वह कहलाता है, जो राष्ट्र की रक्षा किया करता है ब्रह्मचर्य से पौष्टिक और सुगन्धिदायक, सीमाओं की रक्षा और राष्ट्र कल्याण करने वाले क्षत्रिय होने चाहिए।
मुनिवरों! वैश्य वह होता है जो व्यापार के द्वारा, कृषि के द्वारा द्रव्य तथा नाना धातुओं को एकत्रित करता है और उनको राष्ट्र के लिए, क्षत्रियों के लिए, शुद्रों के लिए, सबमें उसको बांट देना, अपना कर्तव्य मानता है।
मुनिवरों! देखो, मनु जी महाराज ने हमारे इस शरीर के भी चार भाग किए, सबसे प्रथम ब्राह्मण जो कंठ से ऊपर का भाग है। क्षत्रिय जो ‘हृदयस्ता’ हृदय में चिता ज्योति है और उदर का वैश्य कहते हैं।
मुनिवरों! जैसे हमारे समक्ष कोई पदार्थ पान करने के लिए आया, तो यह सबसे प्रथम ब्राह्मण के द्वारा गया, कि हे ब्राह्मण! यह अन्न है, भोजन है तू इसको स्वीकार कर अर्थात अन्न को विचारने वाला बन। वह उसको स्वीकार करता है और लेकर क्षत्रिय के द्वारा, वैश्य के द्वारा अर्पण कर देता है। वैश्य उस स्थान का नाम है, जहाँ उदर में जठराग्नि अन्न को पचाती है, उसका रस बनाती है और सामान्य प्राण उसको प्रत्येक नस नाड़ियों में पहुँचा देता है, ब्राह्मण को भी देता है, क्षत्रिय को क्षत्रिय का भाग देता है और शूद्र को शूद्र भाग देता है।
पदार्थ
पदार्थ = ( अस्य ) = इस प्रभु की सृष्टि में ( ब्राह्मण: ) = वेदवेत्ता ईश्वर का ज्ञाता वा उपासक ( मुखम् ) = मुख के तुल्य उत्तम ब्राह्मण ( आसीत् ) = है । ( बाहू ) = भुजाओं के तुल्य बल पराक्रमयुक्त ( राजन्यः ) = क्षत्रिय ( कृतः ) = बनाया ( यत् ) = जो ( ऊरू ) = जांघों के वेगादि काम करनेवाला ( तद् ) = वह ( अस्य ) = इसका ( वैश्य: ) = सर्वत्र प्रवेश करने हारा वैश्य है। ( पद्भ्याम् ) = सेवा के योग्य और अभिमान रहित होने से ( शूद्रः ) = मूर्खतादि गुण युक्त शूद्र ( अजायत ) = उत्पन्न हुआ ।
भावार्थ
भावार्थ = जो मनुष्य वेदविद्या और शम दमादि उत्तम गुणों में मुख के तुल्य उत्तम, ब्रह्म के ज्ञाता हों वे ब्राह्मण,जो अधिक पराक्रमवाले भुजा के तुल्य कार्यों को सिद्ध करने हारे हों वे क्षत्रिय, जो व्यवहार विद्या में प्रवीण हों वे वैश्य और जो सेवा में प्रवीण, विद्या हीन, पगों के समान मूर्खपन आदि नीच गुणयुक्त हैं, वे शूद्र मानने चाहियें । ऐसी वर्णव्यवस्था गुण-कर्म अनुसार ही वेद कथित है। जन्म से न कोई ब्राह्मण है, न ही कोई क्षत्रियादि । सब वेदानुयायी मनुष्यों को चाहिए कि ऐसी व्यवस्था के अनुसार आप चलें और औरों को चलावें ।
विषय
चार वर्ण
शब्दार्थ
(अस्य) इस सृष्टि का, समाज का (ब्राह्मण: मुखम् आसीत्) ब्राह्मण मुख के समान है, होता है (बाहू राजन्यः कृतः) क्षत्रिय लोग शरीर में विद्यमान भुजाओं के तुल्य हैं (यत् वैश्यः) जो वैश्य है (तत्) वह (अस्य ऊरू ) इस समाज का मध्यस्थान, उदर है (पद्भ्याम्) पैरों के लिए (शूद्र: अजायत्) शूद्र को प्रकट किया गया है ।
भावार्थ
इस मन्त्र में अलङ्कार के द्वारा चारों वर्णो का स्पष्ट निर्देश है । मुख की भाँति त्यागी, तपस्वी, ज्ञानी मनुष्य ब्राह्मण पद का अधिकारी होता है । भुजाओं की भाँति रक्षा में तत्पर, लड़ने-मरने के लिए सदा तैयार अपने प्राणों को हथेली पर रखनेवाले क्षत्रिय होते हैं । उदर की भाँति ऐश्वर्य और धन-धान्य को संग्रह करके उसे राष्ट्र के कार्यों में अर्पित करनेवाले व्यक्ति वैश्य होते हैं । जैसे पैर समस्त शरीर का भार उठाते हैं उसी प्रकार सबकी सेवा करनेवाले शूद्र कहलाते हैं । समाज को सुचारु रूप से चलाने के लिए इन चारों वर्णों की सदा आवश्यकता रहती है। आज के युग में भी अध्यापक, रक्षक, पोषक और सेवक-ये चार श्रेणियाँ हैं ही। नाम कुछ भी रक्खे जा सकते हैं परन्तु चार वर्णों के बिना संसार का कार्य चल नहीं सकता । इन वर्णों में सभी का अपना महत्त्व और गौरव है, न कोई छोटा है, न कोई बड़ा, न कोई ऊँच है और न कोई नीच, न कोई अछूत है ।
विषय
पुरुष प्रजापति की विविध अंग की कल्पना और वर्णविषयक प्रश्न और उत्तर ।
भावार्थ
(अस्य) इस परमेश्वर की बनाई सृष्टि में ( ब्राह्मणः मुखम् आसीत् ) ब्राह्मण, देव और वेदज्ञ और ईश्वरोपासक जन मुख रूप हैं ( बाहू राजन्य: कृत:) राजन्य, क्षत्रिय लोग शरीर में विद्यमान बाहु के समान बने हैं । ( यत् वैश्यः ) जो वैश्य हैं ( तत् ) वह (अस्य ऊरू ) उसके जंघा हैं और ( पद्भ्याम् ) पैरों से (शुद्रः अजायत ) शूद्र को प्रकट किया जाता है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
निचृदनुष्टुप् । गान्धारः ॥
विषय
प्रश्न का उत्तर
पदार्थ
१. (अस्य) = इस प्रभुभक्त का (मुखम्) = मुख (ब्राह्मण:) = ब्राह्मण आसीत् हो जाता है। यह प्रभुभक्त अपने मुख से सदा ब्रह्म का प्रतिपादन करनेवाला [ब्राह्मण] बनता है, इसका मुख ज्ञान का प्रसार करता है । २. (बाहू) = इस प्रभुभक्त की (भुजा राजन्यः) = क्षत्रिय (कृतः) = कर दी गई हैं। ('स विशो अरज्यत ततो राजन्यो अजायत') = प्रकृति का रञ्जन करने से ये राजन्य बनी हैं। इसकी भुजाएँ प्रजा के रक्षण में व्याप्त होने से प्रजा को आनन्दित करनेवाली हैं, अतः राजन्य हैं। ३. (यत्) = जो (अस्य) = इसकी (ऊरू) = जाँघें हैं (तत्) = वे ही (वैश्यः) = वैश्य हैं। अथर्व में यह पाठ ‘मध्यं तदस्य यद्वैश्यः' है। 'ऊरू' मध्यभाग का ही प्रतीक है, पेट भी उसमें समाविष्ट है। जिस प्रकार पेट रुधिरादि सब धातुओं का निर्माण करता है इसी प्रकार इस प्रभुभक्त की ऊरू भी निर्माण कार्य में व्याप्त रहती हैं, कभी थकती नहीं । ('कृषिगोरक्षवाणिज्ये') = कृषि, गोरक्षा व वाणिज्य ही वैश्य के कर्म हैं। यह प्रभुभक्त भी इन्हीं जैसे निर्माण के कार्यों में लगा रहता है। ४. (पद्भ्याम्) = पाँवों से यह प्रभुभक्त (शूद्रः) = शूद्र अजायत हो जाता है। 'शूद्र' अर्थात् शु- द्रवति = तीव्र गति करता है। यह प्रभुभक्त बड़ा क्रियाशील होता है। इसमें प्रमाद, आलस्य व निद्रा स्थान नहीं कर लेती, यह अप्रमत्त होकर सब नियत कर्मों को शीघ्रता से करता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभुभक्त ज्ञान का प्रचारक, निर्बलों का रक्षक, सभी का पालक तथा शीघ्रता से कार्यों को करनेवाला होता है, दूसरे शब्दों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र बनता है।
मन्त्रार्थ
(अस्य मुखं ब्राह्मणः-आसीत्) मानवों में पूर्ण पुरुष का मुख ब्राह्मण है अर्थात् मुख के समान ज्ञान तपस्या और त्याग ब्राह्मण में होना चाहिए (बाहू राजन्य: कृत:) भुजाएँ क्षत्रिय निश्चित किये अर्थात् भुजाओं के समान क्षत्रिय को राज्य का शोधन, रक्षण और त्राण करना चाहिए (अस्य-ऊरू-तत्-वैश्यः) इसके जंघाऐं वह जो वैश्य है । अर्थात् जंघाओं के मध्य भाग के समान संग्रह और विभाजन वैश्य का कर्त्तव्य है। (पदुभ्यांशूद्र:-अजायत) पैरों के समान या पादस्थानीय शूद्र हुआ है। अर्थात् पैरों के समान जनहित दौड़-धूप करना शूद्र का कर्म है ॥११॥
विशेष
(ऋग्वेद मं० १० सूक्त ६०) ऋषि:- नारायणः १ - १६ । उत्तरनारायणः १७ – २२ (नारा:आपः जल है आप: नर जिसके सूनु है- सन्तान हैं, ऐसे वे मानव उत्पत्ति के हेतु-भूत, अयन-ज्ञान का आश्रय है जिसका बह ऐसा जीवजन्मविद्या का ज वाला तथा जनकरूप परमात्मा का मानने वाला आस्तिक महाविद्वान् ) देवता - पुरुष: १, ३, ४, ६, ८–१६। ईशानः २। स्रष्टा ५। स्रष्टेश्वरः ७। आदित्यः १७-१९, २२। सूर्य २०। विश्वे देवाः २१। (पुरुष- समष्टि में पूर्ण परमात्मा)
मराठी (2)
भावार्थ
जी माणसे विद्या, शम, दम इत्यादी गुणांनी मुखासारखी उत्तम असतात ती ब्राह्मण होत. जी शक्तिमान व पराक्रमी असतात व सर्व कार्ये सिद्ध करतात तो क्षत्रिय होत. जी व्यवहार विद्येमध्ये प्रवीण असतात ती वैश्य होत. जी विद्याहीन व सेवेत तत्पर मूर्ख व नीच असून पायासमान असतील त्यांना शुद्र म्हटले जाते.
विषय
पुन्हा त्याच विषय -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे जिज्ञासू जनहो (पूर्वीच्या मंत्रात ज्यानी प्रश्न विचारले, त्या जिज्ञासूंना उत्तर देत विद्वान म्हणतात) (अस्य) या ईश्वराच्या सृष्टीत (ब्राह्मण, वेद आणि ईश्वर यांचा ज्ञाता, सेवक आणि उपासक जो आहे, त्याला (मुखम्) मुखाप्रमाणे उत्तम ब्राह्मण (आसीत्) आहे, असे जाणा. (बाहू) शरीरात जसे दोन भुजा तसे बल-पराक्रम करणार्याला (राजन्यः) राजपूत म्हणजे क्षत्रिय (कृतः) केला आहे. असे जाणा (यत्) जो (ऊरू) जंघाप्रमाणे वेगाने काम करणारा आहे, (वत्) तो मनुष्य (अस्य) या परमपुरूषाच्या सृष्टीत (वैश्यः) सर्वत्र प्रवेश वा संचार करणारा (व्यापार -उदीमासाठी दूर-दूरच्या देशात प्रवास करणारा) आहे, त्याला वैश्य जाणा आणि (पद्भ्याम्) सेवा आणि निरभियानिता ज्याच्या अंगी आहेत अशा मनुष्याला (शूद्र) मूर्खत्वादी गुणांनी युक्त मनुष्याला शूद्र (अजायत) (पायाप्रमाणे कष्ट व श्रम करण्याच्या स्वभावाचा माणूस) परमेश्वराच्या सृष्टीत शूद्र जाणावा. ही पूर्वीच्या मंत्रातील प्रश्नांची उत्तरें झाली ॥11॥
भावार्थ
भावार्थ - शरीरात जसे मुख उत्तम, तसा जो विद्या, शम, दम आदी गुणांमुळे उत्तम मनुष्य असेल, तो ब्राह्मण, जो बाहूप्रमाणे अधिक बल, पराक्रमशील आणि कार्यसिद्धी करणारा तो क्षत्रिय, जो व्यवहारविद्या (कृषी, व्यापार आदीत) प्रवीण आहे, त्याला वैश्य आणि जो सेवाकुशल, पायाप्रमाणे विद्याविहीन तसेच मूर्खत्वादी निम्न गुणांनी युक्त लोक आहेत, त्याना शूद्र करावे आणि शूद्र मानावे ॥11॥
इंग्लिश (3)
Meaning
In Gods creation, the Brahmana in body politic is like the head in the body, a Kshatriya is like arms, a Vaisha is like thighs, and a Shudra is considered as feet.
Meaning
The Brahmana, man of divine vision and Vedic Word, is the mouth of the Samrat Purusha, the human community. The Kshatriya, man of justice and polity, is created as the arms of defence. The Vaishya, who produces food and wealth for the society, is the thighs. And the man of sustenance and support with labour is the Shudra who bears the burden of the human family.
Translation
The Brahmana (the intellectual) is His mouth; the Ksatriya (Rajanya or administrator) is His two arms what is the Vaisya (producer of wealth) is His thighs and the Sudra (labourer) is born of His two feet. (1)
Notes
Brāhmaṇaḥh, intellectual person; one who can think, observe, analyze, invent and teach. Rajanyaḥ, warrior, administrator, defender of the weak. Vaisyaḥ, producer of wealth, farmer, cattle breeder, trader, or industrialist. Sūdraḥ, one who lacks initiative; incapable of undertak ing the professions of the other three categories; who is fit for manual labour under the guidance of other people.
बंगाली (2)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে জিজ্ঞাসুগণ ! তোমরা (অস্য) এই ঈশ্বরের সৃষ্টিতে (ব্রাহ্মণঃ) বেদ ঈশ্বরের জ্ঞাতা, তাহার সেবক বা উপাসক (মুখম্) মুখতুল্য উত্তম ব্রাহ্মণ (আসীৎ) আছে (বাহূ) ভুজ তুল্য বল পরাক্রমযুক্ত (রাজন্যঃ) রাজন্য (কৃত) করিয়াছে (য়ৎ) যে (ঊরূ) ঊরূতুল্য বেগাদি কর্ম্ম করে, (তৎ) সে (অস্য) ইহার (বৈশ্যঃ) সর্বত্র প্রবেশকারী বৈশ্য (পদ্ভ্যাম্) সেবাযুক্ত এবং অভিমান রহিত হওয়ার ফলে (শূদ্রঃ) মূর্খতাদি গুণযুক্ত শূদ্র (অজায়ত) উৎপন্ন হইয়াছে, এই উত্তরগুলি ক্রমপূর্বক জানিবে ॥ ১১ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- যে সব মনুষ্য বিদ্যা ও শমদমাদি উত্তম গুণে মুখের তুল্য উত্তম হয়, তাহারা ব্রাহ্মণ, যাহারা অধিক পরাক্রমযুক্ত ভুজ তুল্য কার্য্যগুলিকে প্রতিপন্ন করে, তাহারা ক্ষত্রিয়, যাহারা ব্যবহারবিদ্যায় প্রবীণ তাহারা বৈশ্য এবং যাহারা সেবায় প্রবীণ, বিদ্যাহীন, পায়ের সমান মূর্খতা আদি নীচগুণযুক্ত তাহারা শূদ্র হইবে এবং মান্যতা লাভ করিবে ॥ ১১ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
ব্রা॒হ্ম॒ণো᳖ऽস্য॒ মুখ॑মাসীদ্ বা॒হূ রা॑জ॒ন্যঃ᳖ কৃ॒তঃ ।
ঊ॒রূ তদ॑স্য॒ য়দ্বৈশ্যঃ॑ প॒দ্ভ্যাᳬं শূ॒দ্রোऽঅ॑জায়ত ॥ ১১ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ব্রাহ্মণ ইত্যস্য নারায়ণ ঋষিঃ । পুরুষো দেবতা । নিচৃদনুষ্টুপ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
পদার্থ
ব্রাহ্মণোঽস্য মুখমাসীদ্ধাহূ রাজন্যঃ কৃতঃ ।
ঊরূ তদস্য যদ্বৈশ্যঃ পদ্ভ্যাং শূদ্রোঽঅজায়ত।।৭২।।
(যজু ৩১।১১)
পদার্থঃ (অস্য) সেই পরমাত্মার সৃষ্টিতে (ব্রাহ্মণঃ) বেদের জ্ঞাতা ও ঈশ্বরের উপাসক ব্রাহ্মণ (মুখম্) মুখের তুল্য (আসীৎ) হয়। (বাহূ) বাহুর তুল্য বল ক্ষমতাযুক্ত পরাক্রমশালী (রাজন্যঃ) ক্ষত্রিয় হিসেবে (কৃতঃ) সৃষ্ট করেছেন। (যৎ) যিনি (ঊরূ) উরুর তুল্য বেগাদি কর্ম করেন, (তৎ) সেই ব্যক্তি (অস্য) এই পরমাত্মার (বৈশ্যঃ) বৈশ্যরূপে পরিচিত হয়। (পদ্ভ্যাম্) পায়ের সমান পরিশ্রমী এবং অভিমানরহিত, সেবার যোগ্য ব্যক্তি (শূদ্রঃ) শূদ্র বলে পরিচিত হন। (অজায়ত) এভাবেই সকলে উৎপন্ন হয়েছে।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ যে মানুষ বেদ বিদ্যা শম-দমাদি উত্তম গুণে মুখ্য, ব্রহ্মের জ্ঞাতা এবং মুখের মাধ্যমে জগৎকে জ্ঞানদান করেন, তিনি ব্রাহ্মণ। যিনি অধিক পরাক্রমশালী বাহুর তুল্য কার্যসিদ্ধি করেন, তিনি ক্ষত্রিয়। যিনি ব্যবহার বিদ্যায় প্রবীণ হয়ে উরুর ন্যায় জগৎকে ধারণ করেন, তিনি বৈশ্য। এবং যিনি সেবায় প্রবীণ, কর্মে কঠোর তিনি পায়ের ন্যায় পরিশ্রমী শূদ্র। এই বর্ণ ব্যবস্থা গুণ কর্ম অনুসারে বেদে কথিত হয়েছে। জন্মসূত্রে কেউ ব্রাহ্মণ বা ক্ষত্রিয় নয়। সমস্ত বেদানুযায়ী মানুষের উচিত এমন ব্যবস্থার অনুসারে চলা ও অন্যকে চালনা করা।।৭২।।
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